प्रिय हर्ष,
तुम मेरे बहुत निकट हो, सिर्फ़ इस लिये नहीं कि तुम मेरे ही विश्वविद्यालय के छात्र हो, इसलिए नहीं कि हम और तुम उस समाज में राजनीति में अंदर उतर कर उसे स्वच्छ करने का साझा स्वप्न देखने का प्रयास कर रहे थे जिस राजनीति का रूप, बिहार में एक समय आत्मा को अंदर तक सिहरा देने तक भयावह हो गया था। जिस बिहार का अरण्य कांड जंगल राज से प्रारंभ हुआ था, उस बिहार की जीवनदायिनी गंगा के पवित्र घाट से तुम्हारी आँखों ने उत्तर कांड के साथ राम राज्य की स्थापना के वही स्वप्न देखे थे, जिनकी आस लिए कितने ही जीवन जातिवाद की कुत्सित राजनीति आँखें मूँद कर चले गये।
मैं जब राजनीति में आया तो लालटेन की धुँधलाई हुए रोशनी से बच कर प्रगति के नैसर्गिक प्रकाश की ओर पलायन करते युवाओं को अक्सर देखता था, और सोचता था कि कभी जब बिहार में सब ठीक होगा, मगध अपने गौरव की ओर लौट सकेगा तो उस समय मिट्टी से मगध का उत्थान देखने के लिए उसकी संतानें रहेंगी भी या नहीं। ऐसे में मैं जब तुम जैसे युवाओं को देखता था, उनके विषय में पढ़ता था, तो मन को संतोष होता था मानो चाणक्य अपने पीछे कितने योग्य चंद्रगुप्तों के हाथ में मगध का भविष्य छोड़ गये हैं। जब तुम्हें मैं दो दशकों की विकासहीन, धर्म विहीन, हिंसक राजनीति को चुनौती देते देखता था, तो मन ही मन हाथों से छूटती सत्ता के बोध से विक्षिप्त होती उन भ्रष्ट शक्तियों को देख कर मैं भी मन ही मन वह प्रसिद्ध पंक्तियाँ दोहरा देता था- ‘धनानंद, नंद वंश ही मगध नहीं है।’
मेरी आत्मा यह सोच कर चीत्कार करती है कि मगध के जिस विकसित भविष्य का स्वप्न के कर तुम चले थे, उसे कैसे उस समय ही पाप के उस तिमिर ने लील लिया है जब प्रगति का नया सूरज प्रकट होने को ही है। तुम्हारी आँखें मुँदी नहीं हैं, हर्ष, गंगा के तट पर जब मगध का नया सूर्य उदय होगा, तब मैं तुम्हारी आँखों से घाट पर उसे देखूँगा। मगध का हर मागधी एक दीप छठ में माँ गंगा की गोद में तुम्हारे स्नेह में इस विश्वास के साथ प्रवाहित करेगा कि जंगल राज का कुत्सित अंधकार अब कभी किसी हर्ष को ऐसे हम से नहीं छीनेगा।
– तुम्हारा बड़ा भाई, गुरु