जिन्हें हम अक्सर सुनाते हैं, उन कहानियों में से एक कहानी नवविवाहिता और चूहे की कहानी है। होता यूँ है कि विवाह के कुछ वर्षों बाद जैसा कि भारत में आम था, कन्या का गौना होता है और वो ससुराल आ जाती है। पुराने जमाने की कहानी है, तो उस दौर में भारतीय या कहिये हिन्दुओं की विवाह पद्दति में विवाह कभी बहुत पहले हो जाता था और गौना कई वर्षों बाद होता था। लड़की के ससुराल पक्ष से लोग आते और समधियों की बात-चीत में तय होता कि लड़की तो अभी छोटी है! इस तरह गौना कुछ समय के लिए और टल जाता। ऐसा होते होते दो-तीन साल तो विवाह के बाद गौने में लग ही जाते थे।
बाद में जब सामाजिक व्यवस्थाओं में दिल्ली दरबार में बैठे लोगों के बनाए कानून का दखल हुआ तो हिन्दुओं की विवाह पद्दति नष्ट हो गयी। सामाजिक तौर पर इसका काफी नुकसान हुआ। विवाह और गौने के बीच लम्बा समय होने से पति-पत्नी दोनों को विवाहित जीवन के लिए मानसिक रूप से तैयार होने का समय मिल जाता था। लड़की नए घर में स्वयं को ढालने के लिए तैयार होती थी वहीँ लड़का और उसका परिवार भी किसी नए सदस्य के आगमन की प्रतीक्षा और तैयारी में होता था। अभी जैसा नहीं कि अचानक एक दिन 25-30 साल किसी और व्यवस्था में रही लड़की को सब छोड़कर नयी जगह जाना हो। या स्वच्छंद रहने के आदी पुरुष को किसी नए जीव को अपने जीवन में जगह देनी हो।
खैर, इन दोयम दर्जे के नागरिकों (हिन्दू पढ़ें) का कानूनों से क्या हुआ, उसे छोड़कर हम वापस अपनी कहानी पर चलते हैं। तो स्त्री अपने ससुराल आ गयी थी और खेती-गृहस्थी के कामों में हाथ भी बंटाने लगी थी। ग्रामीण परिवेश था तो घर में दूध भी उपलब्ध था और उससे दही-मक्खन भी बनता ही था। मक्खन बिलोने के बाद उसे ग्रामीण घरों की छत पर ऊँची बल्ली में टांग दिया जाता है। इस तरह वो बिल्ली जैसे जीवों से सुरक्षित रहता, लेकिन स्त्री की शिकायत थी कि एक चूहा उसकी मटकी से रोज मक्खन खा जाता है। इस शिकायत पर पति मुस्कुराया। सास ने उलाहना दिया कि उतनी उंचाई पर चूहा नहीं कूद सकता, अगर तुमने कुछ खा ही लिया है तो कोई बात नहीं।
शिकायत जारी रही और आखिर उसके पति और सास ने कहा, चलो हमें भी दिखाओ। कैसा चूहा है जो जमीन से छत पर टंगी मटकी पर कूद कर चढ़ जाता है? अगली दोपहर जब दोनों लोग मौजूद थे तो चूहा आया, इधर उधर देखकर आश्वस्त हुआ कि कोई खतरा नहीं है, फिर एक ही छलांग में सचमुच छत से टंगी मटकी पर जा चढ़ा! अब तो इस अनोखे चूहे की बात घर से निकलकर टोले और फिर गाँव भर में फैली। लोग देखने आने लगे। कोई कहता दैवी आशीर्वाद है जो गणेश जी का वाहन खुद मक्खन का भोग लगाने पहुँच रहा है लेकिन अधिकांश का मानना था कि ये कोई शैतानी ताकत है। वरना गाँव के मंदिर का भोग छोड़कर किसी के घर में ही मक्खन क्यों खाता?
कुछ दिनों बाद एक सिद्ध माने जाने वाले महात्मा जब गाँव से गुजरे तो गाँव वालों ने उन्हें भी चूहे का किस्सा सुनाया और मामला देखने कहा। महात्मा जी भी दोपहर में चुपचाप कुछ गणमान्य लोगों के साथ कमरे में बैठे और चूहे का कारनामा देखा। उन्होंने सभी बाहर वालों को जाने कहा। घर के तीनों सदस्यों को फावड़ा-खंती लेकर आने को कहा और घर बंद करके अन्दर उसी जगह खुदाई करने कहा जहाँ से चूहा छलांग मारता था। जब खुदाई हुई तो थोड़ा ही नीचे एक अशर्फियों से भरा कलश दबा मिल गया। वो बैंकों का दौर तो था नहीं, इसलिए गृहस्वामी ने कभी ये संपत्ति वहाँ गाड़ी होगी।
जब कलश वहाँ से निकाल कर दूसरी सुरक्षित जगह छुपा दिया गया तो कमरे को लीप-पोतकर अगले दिन लोग फिर चूहे को देखने बैठे। रोज की तरह चूहा फिर आया और हमेशा की तरह उसने मक्खन की मटकी पर फिर से छलांग लगाने की कोशिशें शुरू कर दी। मगर ये क्या! आज चूहा, बिलकुल चूहा ही था। कितनी भी कोशिश कर ले वो एक दो फूट से ऊपर नहीं कूद पाता। आखरी जब हारकर चूहा भागा तो महात्मा ने समझाया, ये धन कि महिमा है। ये निर्बल को सबल बना देती है। ये कायर को साहसी बना देती है। धन की महिमा ऐसी है कि मूर्खों के पास हो तो भी लोग उसे समझदार मानकर, उससे सलाह लेने पहुँचने लगते हैं।
किस्मत से हमारे स्कूल-कॉलेज इसके बारे में पढ़ाते नहीं। ये काफी बाद में लोगों को अपने अनुभव से मालूम होता है। उदाहरण के तौर पर अगर आप एक नौकरी कर रहे हैं, तभी दूसरे के लिए इंटरव्यू देने पहुंचेंगे तो आपका आत्मविश्वास ज्यादा होगा। कहीं जो नौकरी छूट गयी हो, बेरोजगारी का आलम हो, तो आप एक अदद नौकरी के लिए “डेस्पो” टाइप हाल में होंगे। जो आता होगा, इंटरव्यू में वो भी भूल जायेंगे। इसकी तुलना में अगर आपने बचत की हो, आपके बैंक बैलेंस में इतना दम हो कि छह महीने आराम से गुजारा चल जाए तो अपनी नौकरी में या दूसरी के इंटरव्यू में आपको कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। आत्मविश्वास शायद इंटरव्यू लेने वाले मेनेजर से भी ज्यादा होगा।
स्कूलों-कॉलेजों में सिखाएं या न सिखाएं, बचत की जरुरत और पैसे का मनोवैज्ञानिक असर बिलकुल शुरू में ही सीख लेना चाहिए। इसलिए अगर 20-25 वर्षीय युवक-युवतियों को किताबों की सलाह देनी हो तो हम उसमें मॉर्गन हाउसेल की “द साइकोलॉजी ऑफ मनी” को भी शामिल करेंगे। हमें पंद्रह वर्ष पहले ये किताब मिली होती तो हम भी इसे पहले ही पढ़ लेते। अफ़सोस कि ये आई ही साल-दो साल पहले है। गर्मियों की छुट्टियाँ शुरू होने वाली हैं। प्लस टू की परीक्षाएं भी रद्द हो चुकी हैं। समय है, इसे नौकरी या रोजगार शुरू करने से पहले ही पढ़ डालिए। घर में बच्चे हों तो उन्हें उपहार में दे दीजिये। आर्थिक मामलों की समझदारी पर ऐसी सरल भाषा में लिखी किताबें, कम आती हैं। इसे पढ़ा ही जाना चाहिए!