भारत भूमि का एक बड़ा हिस्सा वनों एवं जंगलों से आच्छादित है। भारतीय नागरिकों को प्रकृति का यह एक अनोखा उपहार माना जा सकता है। इन वनों एवं जंगलों की देखभाल मुख्य रूप से जनजाति समाज द्वारा की जाती रही है। जनजाति समाज की विकास यात्रा अपनी भूख मिटाने एवं अपने को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से केवल वनों के इर्द गिर्द चलती रहती है। वास्तविक अर्थों में इसीलिए जनजाति समाज को धरतीपुत्र भी कहा जाता है। प्राचीन काल से केवल प्रकृति ही जनजाति समाज की सम्पत्ति मानी जाती रही है, जिसके माध्यम से उनकी सामाजिक, आर्थिक एंव पारिस्थितिकीय आवश्यकताओं की पूर्ति होती रहती है। ऐसा कहा जाता है कि अनादि काल से जनजाति संस्कृति व वनों का चोली दामन का साथ रहा है और जनजाति समाज का निवास क्षेत्र वन ही रहे हैं। इस संदर्भ में यह भी कहा जा सकता है कि वनों ने ही जनजातीय जीवन एंव संस्कृति के उद्भव, विकास तथा संरक्षण में अपनी आधारभूत भूमिका अदा की है। भील वनवासियों का जीवन भी वनों पर ही आश्रित रहता आया है। जनजाति समाज अपनी आजीविका के लिए वनों में उत्पन्न होने वाली विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का उपयोग करते रहे हैं।

भारतीय वन क्षेत्रों में पाए जाने वाले प्रमुख वनस्पतियों, पेड़ों एवं उत्पादित वस्तुओं में शामिल रहे हैं बबूल, बेर, चन्दन, धोक, धामन, धावडा़, गुदी, हल्दू, इमली, जामुन, कजरी, खेजडी़, खेडा़, कुमटा, महुआ, नीम, पीपल, सागवान, आम, मुमटा, सालर, बानोटीया, गुलर, बांस, अरीठा, आंवला, गोंद, खेर, केलडी, कडैया, आवर, सेलाई वृक्षों से करा, कत्था, लाख, मौम, धोली व काली मुसली, शहद, आदि। इनमें से कई वनस्पतियों की तो औषधीय उपयोगिता है। कुछ जड़ी बूटियों जैसे आंवला का बीज, हेतडी़, आमेदा, आक, करनीया, ब्राह्मी, बोहडा़, रोंजडा, भोग पत्तियां, धतुरा बीज, हड, भुजा, कनकी बीज, मेंण, अमरा, कोली, कादां, पडूला, गीगचा, इत्यादि का उपयोग रोगों के निवारण के लिए किया जाता रहा है। आमेदा के बीजों को पीसकर खाने से दस्त बंद हो जाते हैं। अरण्डी के तेल से मालिश एंव पत्तों को गर्म करके कमर में बांधने से दर्द कम हो जाता है। बुखार को ठीक करने के लिए कड़ा वृक्ष के बीजों को पीस कर पीते हैं। जोडों में दर्द ठीक करने के लिए ग्वार व सैजने के गोंद का उपयोग करते हैं। फोडे फुन्सियों एवं चर्म रोग को ठीक करने के लिए नीम के पत्तों को उबालकर पीते हैं। इसके अलावा तुलसी, लौंग, सोठ, पीपल, काली मिर्च का उपयोग बुखार एवं जुखाम ठीक करने के लिए किया जाता है।

शुरुआती दौर में तो जनजाति समाज उक्त वर्णित वनस्पतियों एवं उत्पादों का उपयोग केवल स्वयं की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही करते रहे हैं परंतु हाल ही के समय में इन वनस्पतियों का उपयोग व्यावसायिक रूप से भी किया जाने लगा है। व्यावसायिक रूप से किए जाने वाले उपयोग का लाभ जनजाति समाज को न मिलकर इसका पूरा लाभ समाज के अन्य वर्गों के लोग ले रहे हैं। उक्त वनस्पतियों एवं उत्पादों का व्यावसायिक उपयोग करने के बाद से ही प्रकृति का दोहन करने के स्थान पर शोषण किया जाने लगा है क्योंकि कई उद्योगों द्वारा उक्त उत्पादों का कच्चे माल के रूप में उपयोग किया जाने लगा है। इससे ध्यान में आता है कि जनजाति समाज द्वारा देश की अर्थव्यवस्था में विकास को गति देने के उद्देश्य से अपनी भूमिका का निर्वहन तो बहुत सफल तरीके से किया जाता रहा है परंतु अर्थव्यवस्था के विकास का लाभ जनजातियों तक सही मात्रा में पहुंच नहीं सका है।

हालांकि भारत में प्राचीन काल से ही जनजाति समाज जंगलों में अपना जीवन यापन करता रहा है और वनोपज (जैसे मध्यप्रदेश में तेन्दु पत्ता को एकत्रित करना) को एकत्रित करता रहा है परंतु अब धीरे धीरे अपने आप को यह समाज कृषि कार्य एवं पशुपालन जैसे अन्य कार्यों में भी संलग्न करने लगा है। जनजाति समाज ने बिना किसी भय के सघन वनों में जंगली जानवरों व प्राकृतिक आपदाओं से लड़ते हुए अपने जीवन को संघर्षमय बनाया है। जनजाति समाज ने कृषि कार्य के लिए सर्वप्रथम जंगलों को काटकर जलाया। भूमि साफ कर इसे कृषि योग्य बनाया और पशुपालन को प्रोत्साहन दिया। विकास की धारा में आगे बढ़ते हुए धीरे-धीरे विभिन्न गावों एवं कस्बों का निर्माण किया।

आज भी जनजाति समाज की अधिकांश जनसंख्या दुर्गम क्षेत्रों में निवास करती है। इन इलाकों में संचार माध्यमों का अभाव है। हालांकि धीरे धीरे अब सभी प्रकार की सुविधाएं इन सुदूर इलाकों में भी पहुंचाई जा रही हैं। परंतु, अभी भी जनजातीय समाज कृषि सम्बन्धी उन्नत विधियों से अनभिज्ञ है। सिंचाई साधनों का अभाव एवं उपजाऊ भूमि की कमी के कारण ये लोग परम्परागत कृषि व्यवस्था को अपनाते रहे हैं और इनकी उत्पादकता बहुत कम है।

जनजाति समाज ने वनों के सहारे अपनी संस्कृति को विकसित किया। घने जंगलों में विचरण करते हुए उन्होंने जंगली जानवरों शेर, भालु, सुअर, गेंडे, सर्प, बिच्छु आदि से बचने के लिए आखेट का सहारा लिया। वनों एवं पहाडियों के आन्तरिक भागों में रहते हुए भील समाज शिकार करके अपनी आजीविका चलाता रहा है। भील समाज जंगलों में झूम पद्धति से खेती, पशुपालन, एवं आखेट कर अपने परिवार का पालन पोषण करते रहे हैं।

घने जंगलों में जनजाति समाज को प्रकृति द्वारा, स्वछंद वातावरण, स्वच्छ जल, नदियां, नाले, झरने, पशु पक्षियों का कोलाहल, सीमित तापमान, हरियाली, आर्द्रता, समय पर वर्षा, मिटटी कटाव से रोक, आंधी एंव तूफानों से रक्षा, प्राकृतिक खाद, बाढ़ पर नियंत्रण, वन्य प्राणियों का शिकार व मनोरंजन इत्यादि प्राकृतिक रूप से उपलब्ध कराया जाता रहा है। इसी के चलते जनजाति समाज घने जंगलों में भी बहुत संतोष एवं प्रसन्नता के साथ रहता है।

जनजाति समाज आज भी भारतीय संस्कृति का वाहक माना जाता है क्योंकि यह समाज सनातन हिंदू संस्कृति का पूरे अनुशासन के साथ पालन करता पाया जाता है। जनजाति समाज आज भी आधुनिक चमक दमक से अपने आप को बचाए हुए है। इसके विपरीत शहरों में रहने वाला समाज समय समय पर भारतीय परम्पराओं में अपनी सुविधानुसार परिवर्तन करता रहता है।

हाल ही के समय में अत्यधिक आर्थिक महत्वकांक्षा के चलते वनों का अदूरदर्शितापूर्ण ढंग से शोषण किया जा रहा है। विश्व पर्यावरण एवं विकास आयोग के अनुसार विश्व में प्रतिवर्ष 110 लाख हैक्टर भूमि के वन नष्ट किये जा रहे है। पर्यावरण विशेषज्ञों के अनुसार प्रत्येक देश में उपलब्ध भूमि के लगभग 33 प्रतिशत भाग पर वन होना आवश्यक है। यदि वनों का इस प्रकार कटाव होता रहेगा तो जनजाति समाज पर विपरीत प्रभाव पड़ना स्वाभाविक ही है।

भारत द्वारा इस संदर्भ में कई प्रयास किए जा रहे हैं। देश में वनों के कटाव को रोकने के लिए वर्ष 2015 एवं 2017 के बीच देश में पेड़ एवं जंगल के दायरे में 8 लाख हेक्टेयर भूमि की वृद्धि दर्ज की है। साथ ही, भारत ने वर्ष 2030 तक 2.10 करोड़ हेक्टेयर जमीन को उपजाऊ बनाने के लक्ष्य को बढ़ाकर 2.60 करोड़ हेक्टेयर कर दिया है ताकि वनों के कटाव को रोका जा सके।

भारत में सम्पन्न हुई वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में अनुसूचित जनजातियों की कुल जनसंख्या 10.43 करोड़ है, जो भारत की कुल जनसंख्या का 8.6 प्रतिशत है। जनजाति समाज को देश के आर्थिक विकास में शामिल करने के उद्देश्य से केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा कई योजनाएं चलाई जा रही हैं ताकि इस समाज की कठिन जीवनशैली को कुछ हद्द तक आसान बनाया जा सके।

By Prahlad Sabnani

लेखक परिचय :- श्री प्रह्लाद सबनानी, उप-महाप्रबंधक के पद पर रहते हुए भारतीय स्टेट बैंक, कारपोरेट केंद्र, मुम्बई से सेवा निवृत हुए है। आपने बैंक में उप-महाप्रबंधक (आस्ति देयता प्रबंधन), क्षेत्रीय प्रबंधक (दो विभिन्न स्थानों पर) पदों पर रहते हुए ग्रामीण, अर्ध-शहरी एवं शहरी शाखाओं का नियंत्रण किया। आपने शाखा प्रबंधक (सहायक महाप्रबंधक) के पद पर रहते हुए, नई दिल्ली स्थिति महानगरीय शाखा का सफलता पूर्वक संचालन किया। आप बैंक के आर्थिक अनुसंधान विभाग, कारपोरेट केंद्र, मुम्बई में मुख्य प्रबंधक के पद पर कार्यरत रहे। आपने बैंक में विभिन पदों पर रहते हुए 40 वर्षों का बैंकिंग अनुभव प्राप्त किया। आपने बैंकिंग एवं वित्तीय पत्रिकाओं के लिए विभिन्न विषयों पर लेख लिखे हैं एवं विभिन्न बैंकिंग सम्मेलनों (BANCON) में शोधपत्र भी प्रस्तुत किए हैं। श्री सबनानी ने व्यवसाय प्रशासन में स्नात्तकोतर (MBA) की डिग्री, बैंकिंग एवं वित्त में विशेषज्ञता के साथ, IGNOU, नई दिल्ली से एवं MA (अर्थशास्त्र) की डिग्री, जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर से प्राप्त की। आपने CAIIB, बैंक प्रबंधन में डिप्लोमा (DBM), मानव संसाधन प्रबंधन में डिप्लोमा (DHRM) एवं वित्तीय सेवाओं में डिप्लोमा (DFS) भारतीय बैंकिंग एवं वित्तीय संस्थान (IIBF), मुंबई से प्राप्त किया। आपको भारतीय बैंक संघ (IBA), मुंबई द्वारा प्रतिष्ठित “C.H.Bhabha Banking Research Scholarship” प्रदान की गई थी, जिसके अंतर्गत आपने “शाखा लाभप्रदता - इसके सही आँकलन की पद्धति” विषय पर शोध कार्य सफलता पूर्वक सम्पन्न किया। आप तीन पुस्तकों के लेखक भी रहे हैं - (i) विश्व व्यापार संगठन: भारतीय बैंकिंग एवं उद्योग पर प्रभाव (ii) बैंकिंग टुडे एवं (iii) बैंकिंग अप्डेट (iv) भारतीय आर्थिक दर्शन एवं पश्चिमी आर्थिक दर्शन में भिन्नता: वर्तमान परिपेक्ष्य में भारतीय आर्थिक दर्शन की बढ़ती महत्ता latest Book Link :- https://amzn.to/3O01JDn

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