हिंदू सनातन संस्कृति हमें सिखाती है कि आर्थिक विकास के लिए प्रकृति का दोहन करना चाहिए न कि शोषण। परंतु, आर्थिक विकास की अंधी दौड़ में पूरे विश्व में आज प्रकृति का शोषण किया जा रहा है। प्राकृतिक संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग कर प्रकृति से अपनी आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति बहुत ही आसानी से की जा सकती है परंतु दुर्भाग्य से आवश्यकता से अधिक वस्तुओं के उपयोग एवं इन वस्तुओं के संग्रहण के चलते प्राकृतिक संसाधनों का शोषण करने के लिए हम जैसे मजबूर हो गए हैं। ऐसा कहा जाता है कि जिस गति से विकसित देशों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों का शोषण किया जा रहा है, उसी गति से यदि विकासशील एवं अविकसित देश भी प्राकृतिक संसाधनों का शोषण करने लगे तो इसके लिए केवल एक धरा से काम चलने वाला नहीं है बल्कि शीघ्र ही हमें इस प्रकार की चार धराओं की आवश्यकता होगी।
एक अनुमान के अनुसार जिस गति से कोयला, गैस एवं तेल आदि संसाधनों का इस्तेमाल पूरे विश्व में किया जा रहा है इसके चलते शीघ्र ही आने वाले कुछ वर्षों में इनके भंडार समाप्त होने की कगार तक पहुंच सकते हैं। बीपी स्टेटिस्टिकल रिव्यू आॅफ वल्र्ड एनर्जी रिपोर्ट 2016 के अनुसार दुनिया में जिस तेजी से गैस के भंडार का इस्तेमाल हो रहा है, यदि यही गति जारी रही, तो प्राकृतिक गैस के भंडार आगे आने वाले 52 वर्षों में समाप्त हो जाएगें। फाॅसिल फ्यूल में कोयले के भंडार सबसे अधिक मात्रा में उपलब्ध हैं। परंतु विकसित एवं अन्य देश इसका जिस तेज गति से उपयोग कर रहे है, यदि यही गति जारी रही तो कोयले के भंडार दुनिया में आगे आने वाले 114 वर्षों में समाप्त हो जाएगें। एक अन्य अनुमान के अनुसार भारत में प्रत्येक व्यक्ति औसतन प्रतिमाह 15 लीटर से अधिक तेल की खपत कर रहा है। धरती के पास अब केवल 53 साल का ही आॅइल रिजर्व शेष है। भूमि की उर्वरा शक्ति भी बहुत तेजी से घटती जा रही है। पिछले 40 वर्षों में कृषि योग्य 33 प्रतिशत भूमि या तो बंजर हो चुकी है अथवा उसकी उर्वरा शक्ति बहुत कम हो गई है। जिसके चलते पिछले 20 वर्षों में दुनिया में कृषि उत्पादकता लगभग 20 प्रतिशत तक घट गई है।
कई अनुसंधान प्रतिवेदनों के माध्यम से अब यह सिद्ध किया जा चुका है कि वर्तमान में अनियमित हो रहे मानसून के पीछे जलवायु परिवर्तन का योगदान हो सकता है। कुछ ही घंटों में पूरे महीने की सीमा से भी अधिक बारिश का होना, शहरों में बाढ़ की स्थिति निर्मित होना, शहरों में भूकम्प के झटके एवं साथ में सुनामी का आना, आदि प्राकृतिक आपदाओं जैसी घटनाओं के बार-बार घटित होने के पीछे भी जलवायु परिवर्तन एक मुख्य कारण हो सकता है। एक अनुसंधान प्रतिवेदन के अनुसार, यदि वातावरण में 4 डिग्री सेल्सियस से तापमान बढ़ जाय तो भारत के तटीय किनारों के आसपास रह रहे लगभग 5.5 करोड़ लोगों के घर समुद्र में समा जाएंगे। साथ ही, चीन के शांघाई, शांटोयु, भारत के कोलकाता, मुंबई, वियतनाम के हनोई एवं बांग्लादेश के खुलना शहरों की इतनी जमीन समुद्र में समा जाएगी कि इन शहरों की आधी आबादी पर इसका बुरा प्रभाव पड़ेगा। वेनिस एवं पीसा की मीनार सहित यूनेस्को विश्व विरासत के दर्जनों स्थलों पर समुद्र के बढ़ते स्तर का विपरीत प्रभाव पड़ सकता है।
दुनिया में जितना भी पानी है, उसमें से 97.5 प्रतिशत समुद्र में है, जो खारा है। 1.5 प्रतिशत बर्फ के रूप में उपलब्ध है। केवल 1 प्रतिशत पानी ही पीने योग्य उपलब्ध है। वर्ष 2025 तक भारत की आधी और दुनिया की 1.8 अरब आबादी के पास पीने योग्य पानी उपलब्ध नहीं होगा। विश्व स्तर के अनेक संगठनों ने कहा है कि अगला युद्ध अब पानी के लिए लड़ा जाएगा। अर्थात पीने के मीठे पानी का अकाल पड़ने की पूरी सम्भावना है। इसमें कोई संदेह नहीं कि पानी के पानी के लिए केवल विभिन्न देशों के बीच ही युद्ध नहीं होंगे बल्कि हर गांव, हर गली-मोहल्ले में पानी के लिए युद्ध होंगे। पर हम इसके बारे में अभी तक जागरुक नहीं हुए हैं। आगे आने वाले समय में परिणाम बहुत गंभीर होने वाले हैं।
चक्रीय अर्थव्यवस्था (सर्क्यूलर इकॉनामी) का आश्य उस अर्थव्यवस्था से है जिसमें उत्पादों के निर्माण में उपयोग किए जाने वाले कच्चे माल, पानी एवं ऊर्जा के उपयोग को कम किया जाता है एवं पदार्थों के अवशेष (वेस्ट) को कम करते हुए इनके पुनरुपयोग को बढ़ावा दिया जाता है। यह लक्ष्य विभिन्न पदार्थों के उपयोग को उच्चत्तम स्तर पर ले जाकर एवं इन पदार्थों की बर्बादी को रोककर हासिल किए जाने का प्रयास किया जाता है। इससे प्राकृतिक संसाधनों के अति-उपयोग पर अंकुश लगाया जा सकता है। चक्रीय अर्थव्यवस्था के अंतर्गत उत्पादों एवं विभिन्न पदार्थों के उपयोग को कम करना, इनका पुनः उपयोग करना तथा विनिर्माण इकाईयों द्वारा इस प्रकार की प्रक्रिया अपनाना, जिससे कच्चे माल, ऊर्जा एवं पानी का कम प्रयोग हो सके, आदि उपाय भी शामिल हैं। उत्पादों को यदि रिपेयर कर पुनः उपयोग किया जा सकता है तो यह आदत भी विकसित की जानी चाहिए, इससे उस उत्पाद के कुल जीवन साइकल को बढ़ाया जा सकता है एवं उसके स्थान पर नए उत्पाद की आवश्यकता को कम किया जा सकता है। क्षतिग्रस्त अथवा खराब हुए उत्पाद को पुनरुपयोग योग्य बनाए जाने के प्रयास भी किए जाने चाहिए। उचित वेस्ट मेनेजमेंट को भी बढ़ावा दिया जाना चाहिए। इससे कुल मिलाकर प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव कम होगा। आजकल 7 आर ओफ सर्क्यूलर इकॉनामी को भी इस संदर्भ में अपनाने पर विचार किया जा रहा है – रिडयूस (Reduce -उत्पादों का उपयोग कम करें) , रीयूज (Reuse -उत्पादों का पुनः उपयोग करें), रीसाइकल (Recycle -बर्बाद हुए उत्पादों को रीसाइकल करें), रीडिजाइन (Redesign -उत्पादों की इस प्रकार डिजाइन विकसित करें कि कच्चे माल, पानी एवं ऊर्जा का कम उपयोग हो), रीपेयर (Repair -उत्पाद की मरम्मत कर पुनः उपयोग करने लायक बनाएं), रिन्यू (Renew -खराब हुए उत्पाद को ठीक कर उसका पुनः उपयोग करना), रिकवर (Recover -खराब हुए उत्पाद के कुछ पार्ट्स का पुनः उपयोग करना), रीथिंक (Rethink -नए प्रॉसेस के नवीकरण बारे में विचार करना), रिपर्पस (Repurpose), रिमैन्यूफेक्चर (Remanufacture) आदि उपाय भी सर्क्यूलर इकॉनामी के अंतर्गत किए जाते हैं।
अतः कुल मिलाकर, अब समय आ गया है कि समस्त देश मिलकर इस बात पर गम्भीरता से विचार करें कि इस धरा को शोषित होने से कैसे बचाया जाय। इसके लिए आज इस धरा से लिए जाने वाले पदार्थों के उपयोग पर न केवल अंकुश लगाने की आवश्यकता है अपितु इन पदार्थों के पुनः उपयोग करने की विधियों को विकसित करने की भी महती आवश्यकता है। जैसे जीवाश्म ऊर्जा पर निर्भरता कम करने के उद्देश्य से भारत वैकल्पिक एवं नवीकरणीय ऊर्जा स्त्रोतों को बढ़ावा देने पर काम कर रहा है। ऊर्जा मिश्रण में विविधता लाने पर भी ध्यान केंद्रित किया जा रहा है। इसमें सौर, पवन, पनबिजली और परमाणु ऊर्जा के उपयोग का विस्तार करना भी शामिल है। भारत, परिवहन, औद्योगिक प्रक्रियाओं, प्राथमिकता भवनों सहित, विभिन्न क्षेत्रों में ऊर्जा दक्षता उपायों को प्राथमिकता दे रहा है। इसमें ऊर्जा कुशल तकनीकों को अपनाना, औद्योगिक प्रक्रियाओं का अनुकूलन करना और मजबूत ऊर्जा संरक्षण उपायों को लागू करना शामिल हैं। साथ ही जीवाश्म तेल में ईथेनाल का सम्मिश्रण भी किया जा रहा है ताकि पेट्रोल एवं डीजल के उपयोग को कम किया जा सके। आज समय की मांग है कि विश्व के समस्त देश ऊर्जा सम्मिश्रण के क्षेत्र में साथ मिलकर काम करें। भारत ने सुझाव दिया है कि पेट्रोल में ईथेनाल सम्मिश्रण को वैश्विक स्तर पर 20 प्रतिशत तक ले जाने के लिए सामूहिक प्रयास किए जाएं, अथवा वैश्विक भलाई के लिए कोई और सम्मिश्रण पदार्थ की खोज की जाए, जिससे ऊर्जा की आपूर्ति निर्बाध रूप से बनी रहे और पर्यावरण भी सुरक्षित रहे।
भारत ने उत्सर्जन वृद्धि को कम करने के उद्देश्य से बहुत पहले (2 अक्टोबर 2015 को) ही अपने लिए कई लक्ष्य तय कर लिए थे। इनमें शामिल हैं, वर्ष 2030 तक वर्ष 2005 के स्तर से अपने सकल घरेलू उत्पाद की उत्सर्जन तीव्रता को 30 से 35 प्रतिशत तक कम करना (भारत ने अपने लिए इस लक्ष्य को अब 45 प्रतिशत तक बढ़ा दिया है), गैर-जीवाश्म आधारित ऊर्जा के उत्पादन के स्तर को 40 प्रतिशत तक पहुंचाना (भारत ने अपने लिए इस लक्ष्य को अब 50 प्रतिशत तक बढ़ा लिया है) और वातावरण में कार्बन उत्पादन को कम करना, इसके लिए अतिरिक्त वन और वृक्षों के आवरण का निर्माण करना, आदि। इन संदर्भों में अन्य कई देशों द्वारा अभी तक किए गए काम को देखने के बाद यह पाया गया है कि जी-20 देशों में केवल भारत ही एक ऐसा देश है जो पेरिस समझौते के अंतर्गत तय किए गए लक्ष्यों को प्राप्त करता दिख रहा है। जी-20 वो देश हैं जो पूरे विश्व में वातावरण में 70 से 80 प्रतिशत तक उत्सर्जन फैलाते हैं। जबकि भारत आज इस क्षेत्र में काफी आगे निकल आया है एवं इस संदर्भ में पूरे विश्व का नेतृत्व करने की स्थिति में आ गया है। भारत ने अपने लिए वर्ष 2030 तक 550 GW सौर ऊर्जा का उत्पादन करने का लक्ष्य निर्धारित किया है। भारत ने अपने लिए वर्ष 2030 तक 2.6 करोड़ हेक्टेयर बंजर जमीन को दोबारा खेती लायक उपजाऊ बनाने का लक्ष्य भी निर्धारित किया है। साथ ही, भारत ने इस दृष्टि से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सौर संधि करते हुए 88 देशों का एक समूह बनाया है ताकि इन देशों के बीच तकनीक का आदान प्रदान आसानी से किया जा सके।