रिव्यू बाय Deepak Dua
चोर-पुलिस की चूहा-बिल्ली जैसी भागमभाग पर बहुत सारी कहानियां आई हैं। यह कहानी इस मायने में अलग है कि चूहे के पीछे पड़ी बिल्ली जब उसे पकड़ने और मारने की जुगत में होती है तो ठीक उसी समय चूहा सामने आकर सरेंडर कर देता है और पूछता है-एक कहानी सुनाऊं?
लखनऊ और आसपास गैंग्स्टर वेधा का आतंक है। पुलिस की स्पेशल टास्क फोर्स एक-एक कर उसके करीबियों को ठोक रही है। लेकिन इससे पहले कि ये लोग वेधा तक पहुंचें, वह खुद आकर सरेंडर कर देता है। पुलिस अफसर विक्रम को वह अपने अतीत की एक-एक कर तीन कहानियां सुनाता है जिनके अंत में हर बार एक सवाल सामने आता है कि उन हालात में उसे क्या करना चाहिए था? या उसने जो किया, वह सही था या गलत?
सदियों से हम लोग ‘बेताल पच्चीसी’ की विक्रम-बेताल वाली कहानियां सुनते-पढ़ते आए हैं जिनमें राजा विक्रमादित्य की पीठ पर सवार बेताल उन्हें कोई कहानी सुना कर सवाल पूछता है और कहता है कि जवाब मालूम होने पर भी चुप रहे तो मरोगे और अगर बोले तो मैं वापस चला जाऊंगा। जिन्होंने न पढ़ी हों, उनके लिए फिल्म के शुरू में दो मिनट का एनिमेशन भी है। 2017 में आई आर. माधवन-विजय सेतुपति वाली इसी नाम की तमिल फिल्म के इस रीमेक में विक्रम और वेधा के बीच उसी तरह कहानियों का वर्णन और अंत में आने वाले धर्मसंकट की बात दिखाई गई है। यह फिल्म दरअसल पाप-पुण्य, गलत-सही, काले-सफेद, चोर-पुलिस के बीच की उसी शाश्वत लड़ाई को दिखाती है जो हम राम-रावण के समय से देखते-सुनते आए हैं।
इस फिल्म की कहानी से बढ़ कर इसकी स्क्रिप्ट है। ऐसी कसी हुई, दाव-पेंच दिखाती, चौंकाती पटकथाएं ही इस किस्म की फिल्मों को ऊंचाई पर ले जाती हैं। इस फिल्म में कहानी कहने का यह ढांचा इस कदर मज़बूत है कि उस पर चढ़ कर यह कद्दावर हुई है। मूल तमिल से इसे हिन्दी में ढालते समय पुराने चैन्नई शहर के बैकग्राउंड से कानपुर, लखनऊ तक पहुंचाते हुए वहां के माहौल, गलियों, किरदारों, बोली आदि का भी भरपूर ध्यान रखा गया है जो दर्शक को सुहाता है। विक्रम और वेधा के बीच चलने वाले संवाद इस फिल्म के असर को गहरा बनाते हैं। अंत में सच की परतें उधड़ती हैं तो हैरानी भी होती है। इन सब से भी बढ़ कर है इसका निर्देशन। तमिल वाले पुष्कर और गायत्री ने ही इसे हिन्दी में बनाया है इसलिए उनके काम में सहजता के साथ-साथ दृढ़ता भी दिखती है। कई सीन बहुत शानदार बने हैं। प्रतीकों का इस्तेमाल उन्हें और बेहतर बनाता है।
अभिनय सभी का बढ़िया है। सैफ अली खान और हृतिक रोशन को पर्दे पर देखना अच्छा लगता है। दोनों ने ही अपने-अपने किरदारों की खूबियों को कस कर पकड़ते हुए एक-दूसरे को भरपूर टक्कर भी दी है। हृतिक हालांकि कई जगह अपने ‘सुपर 30’ के दाढ़ी वाले गैटअप की याद दिलाते हैं लेकिन उनके अभिनय और संवाद अदायगी में दक्षता झलकती है। राधिका आप्टे जब-जब आती हैं, असर छोड़ती हैं। सत्यदीप मिश्रा, रोहित सराफ, मनुज शर्मा, योगिता बिहानी आदि अन्य सभी कलाकार भी अपने किरदारों के साथ न्याय करते हैं। शारिब हाशमी का अलग से उल्लेख ज़रूरी है। उन्हें अभी तक के अपने किरदारों से हट कर भूमिका मिली जिसे उन्होंने इस कदर सटीक ढंग से निभाया है कि देख कर तालियां बजाने का मन होता है।
फिल्म की एक बड़ी खासियत इसका एक्शन है। पिछले कुछ समय से हिन्दी फिल्मों में आ रहे ‘घूंसा मारा और उड़ गया’ वाले एक्शन से अलग इस फिल्म की मारधाड़ एकदम असली गैंग्स्टरों वाली है जिसे देख कर डर लगता है और उस डर से आनंद उपजता है। फिल्म के शुरू में हिंसा को महिमामंडित न करने वाला डिस्क्लेमर ही यह बता देता है कि आप एक हिसक-ज़ोन में प्रवेश करने जा रहे हैं। गाने सुनने से ज़्यादा देखने में अच्छे लगते हैं। बैकग्राउंड म्यूज़िक दमदार है और फिल्म के असर को कई गुना बढ़ाता है। कैमरा एक-एक पल को बारीकी से कैच करता है।
फिल्म की दो घंटे 40 मिनट की लंबाई इसका कमज़ोर पक्ष है। कुछ एक जगह यह हल्की पड़ती है। खासतौर से वेधा की सुनाई दूसरी कहानी बहुत लंबी लगने लगती है। दो-एक जगह लचकने, तर्क छोड़ने, खटकने और आने वाले सीक्वेंस का अंदाज़ा देने के बावजूद यह फिल्म एक्शन और थ्रिल का संतुलित, मसालेदार मनोरंजन परोसने में कामयाब रही है। यह एक इंटेलीजैंट किस्म की फिल्म है जो दिमाग से फिल्में देखने वालों को भरपूर सुहाएगी।

By MINIMETRO LIVE

Minimetro Live जनता की समस्या को उठाता है और उसे सरकार तक पहुचाता है , उसके बाद सरकार ने जनता की समस्या पर क्या कारवाई की इस बात को हम जनता तक पहुचाते हैं । हम किसे के दबाब में काम नहीं करते, यह कलम और माइक का कोई मालिक नहीं, हम सिर्फ आपकी बात करते हैं, जनकल्याण ही हमारा एक मात्र उद्देश्य है, निष्पक्षता को कायम रखने के लिए हमने पौराणिक गुरुकुल परम्परा को पुनः जीवित करने का संकल्प लिया है। आपको याद होगा कृष्ण और सुदामा की कहानी जिसमे वो दोनों गुरुकुल के लिए भीख मांगा करते थे आखिर ऐसा क्यों था ? तो आइए समझते हैं, वो ज़माना था राजतंत्र का अगर गुरुकुल चंदे, दान, या डोनेशन पर चलती तो जो दान देता उसका प्रभुत्व उस गुरुकुल पर होता, मसलन कोई राजा का बेटा है तो राजा गुरुकुल को निर्देश देते की मेरे बेटे को बेहतर शिक्षा दो जिससे कि भेद भाव उत्तपन होता इसी भेद भाव को खत्म करने के लिए सभी गुरुकुल में पढ़ने वाले बच्चे भीख मांगा करते थे | अब भीख पर किसी का क्या अधिकार ? आज के दौर में मीडिया संस्थान भी प्रभुत्व मे आ गई कोई सत्ता पक्ष की तरफदारी करता है वही कोई विपक्ष की, इसका मूल कारण है पैसा और प्रभुत्व , इन्ही सब से बचने के लिए और निष्पक्षता को कायम रखने के लिए हमने गुरुकुल परम्परा को अपनाया है । इस देश के अंतिम व्यक्ति की आवाज और कठिनाई को सरकार तक पहुचाने का भी संकल्प लिया है इसलिए आपलोग निष्पक्ष पत्रकारिता को समर्थन करने के लिए हमे भीख दें 9308563506 पर Pay TM, Google Pay, phone pay भी कर सकते हैं हमारा @upi handle है 9308563506@paytm मम भिक्षाम देहि

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