पलायन का अर्थ क्या होता है? वैसे तो जब दुर्गा पूजा के समय ये प्रश्न पूछा जाये तो कुछ मासूमों, क्यूट लोगों को, अटपटा लगेगा, लेकिन मेरे हिसाब से इस प्रश्न के लिए ये बिलकुल सही अवसर है। बिहार के करोड़ों लोग जो प्रवासियों की तरह बाहर रहते हैं, वो करीब-करीब इसी समय लौट रहे होते हैं। इनके पलायन के क्रम में जो चीज रास्ते में कहीं खोती जाती है, वो है संस्कृति। पलायन का एक अर्थ संस्कृति का खो जाना भी होता है। ये वैसा ही है जैसा कैनाडा इत्यादि को पलायन करने पर आज के पंजाब से भांगड़ा-गिद्धा कहीं खोया हुआ है। पचास वर्ष पहले जैसे फिल्मों तक में गिद्धा दिखता था, वैसा आज दिखता है क्या? इसकी तुलना में गुजरात से पलायन उतना नहीं होता, इसलिए वहाँ का गरबा आपको दुर्गा पूजा नजदीक आते ही दिखने लगेगा। इतना ही नहीं, जिन क्षेत्रों में गरबा नहीं होता था, वहाँ भी आपको “गरबा नाईट” के आयोजन शुरू होते दिखने लगेंगे।
बिहार से जो ऐसा ही नृत्य का एक स्वरुप, करीब-करीब खो गया, उसे “झिझिया” कहा जाता है। जैसा कि लोक-परम्पराओं में होता है, बिलकुल वैसे ही “झिझिया” के पीछे भी एक कहानी जुड़ी हुई होती है। जबतक दादी-नानी के पास कहानियां सुनाने की परिपाटी थी, तबतक ये कहानी रही, अब ये दंतकथा भी लुप्त सी हो चली है। नयी पीढ़ी में कम ही लोग ये कहानी बता पाएंगे। ये कहानी जादू-टोने और राजा-रानी के दौर की वैसी कहानी है, जैसी आजकल हैरी पॉटर की होती है। कहानी में राजा थे चित्रसेन। उनके विवाह को कई वर्ष बीत चुके थे लेकिन उनकी कोई संतान नहीं थी, इसलिए उन्होंने अपने ही एक सम्बन्धी बलरुची को गोद ले लिया। राजा की रानी तंत्र कलाओं में माहिर थी और उसे बलरूचि बिलकुल पसंद नहीं था। जब उसे राजा ने उत्तराधिकारी घोषित कर दिया तो रानी ने बलरूचि को मार देने की ठानी। अपनी तांत्रिक शक्तियों के बल पर उसने स्वयं को बीमार कर लिया। वैद्य लाख दवाएँ देते रहे लेकिन बुखार कम ही न हो।
अंततः रानी ने स्वयं ही बताया कि उसका बुखार तभी उतरेगा जब वो बलरूचि के रक्त से स्नान करे! राजा ऐसे इलाज के लिए तैयार नहीं थे लेकिन जब बिमारी ठीक नहीं हुई और रानी मरणासन्न लगने लगी तो उन्होंने सिपाहियों को आदेश दिया कि बलरुची को मारकर उसका रक्त ले आयें। सिपाही बालक बलरुची को लेकर वन में गए, मगर उनसे बालक की हत्या नहीं हो पायी। उन्होंने सोचा कि बालक वन में भटक जायेगा, किसी को मिलेगा नहीं। इसलिए बालक को सिपाहियों ने छोड़ दिया, एक हिरण को मारा, और उसका रक्त ले आये। रानी ने रक्त से स्नान किया और ठीक हो गयी। दूसरी तरफ जंगल में भटकता बालक बलरूचि एक बुढ़िया की झोंपड़ी पर जा पहुंचा। ये बुढ़िया स्वयं तांत्रिक थी और उसे सुन्दर से बालक पर दया आई तो उसने बलरूचि को अपने ही पास रख लिया। जंगल में पलता बालक बड़ा होता रहा और राजा चित्रसेन अपने राज्य में रहे।
कई वर्ष बाद राजा कहीं जाते हुए उसी वन से होकर जा रहे थे जब उनकी पालकी उठाने वालों में से एक की मृत्यु हो गयी। सिपाहियों ने पालकी उठाने के लिए एक और कहार को ढूँढा तो वन में उन्हें युवा हो चुका बलरूचि मिला। वो उसी को लाये और इस तरह बलरूचि कहार की तरह राजा चित्रसेन की पालकी उठाये चला। वर्षों बीत चुके थे और कहार पर राजा क्या ध्यान देते इसलिए न राजा ने बलरूचि को पहचाना, और न बलरूचि ने चित्रसेन को। रास्ते में पालकी में बैठे राजा एक गीत गाने लगे जो वो परिवार में कभी गुनगुनाते और बलरूचि को भी सुनाते थे। गीत की धुन और एक वाक्य तो राजा को याद था, मगर दूसरा वाक्य याद ही न आये! दो-चार बार जब राजा एक ही वाक्य दोहराते रहे तो पालकी उठाये बलरूचि ने दूसरा वाक्य गाकर गीत पूरा कर दिया। राजा गीत सुनकर चौंके, पालकी रुकवाई और आमना-सामना, थोड़ी सी पूछताछ होते ही पता चल गया कि ये तो बलरूचि है!
इस समय तक रानी को भी अपने कृत्य पर काफी पछतावा हो चुका था, इसलिए बलरुची मिला तो राजा-रानी उसे अपने साथ वापस महल में चलने कहने लगे। बलरुची को भी अपना खोया परिवार मिला तो वो वापस लौटने को तैयार हो गया। वो तांत्रिक बुढ़िया जिसने इतने वर्षों से बलरुची को पाल रखा था, उसे बलरुची का जाना बिलकुल पसंद नहीं आया। उसने बलरुची को मार डालने के लिए टोने-टोटके करने शुरू किये। रानी जो स्वयं तंत्र-मन्त्र की अभ्यस्त थी, उसे पहचानते देर नहीं लगी कि बलरुची पर टोने-टोटके किये जा रहे हैं। बलरुची को बचाने के उपाय उसने शुरू किये और थोड़ी ही देर में जंगल की बुढ़िया और रानी में जादू-टोने का युद्ध शुरू हो गया। कई प्रयासों के बाद अंततः रानी विजयी हुई और राजा चित्रसेन रानी और बलरुची को लिए अपने राज्य वापस लौट पाए। बलरुची फिर से राजा के उत्तराधिकारी घोषित हुए और हर वर्ष टोने-टोटके इत्यादि से परिवार और बच्चों को बचाने के लिए रानी के किये अनुसार जो परंपरा शुरू हुई उसे “झिझिया” कहते हैं।
झिझिया का अभी जो नृत्य स्वरुप चलता है, उसमें युवतियाँ सर पर एक कई छिद्रों वाला मटका लेकर बहुत तेज गति से घूमने वाला नृत्य कर रही होती हैं। तेज गति से घूमना क्यों है? क्योंकि ऐसा माना जाता है की किसी जादू-टोना करने वाली ने जिस स्त्री के सर पर रखे मटके के छेद गिन लिए, उसकी उसी क्षण मृत्यु हो जायेगी। मिथिलांचल में नेपाल तक ये नृत्य अभी भी (भले कम मात्रा में), कलश स्थापन से लेकर विजयदशमी के दिन तक होता है। झिझिया के गीतों में दो तरह के गीत सुनाई देंगे, एक तो वो जिसमें परंपरागत देवी का आह्वान होगा, और दूसरा अधिक प्रचलित गीत ग्राम देवता का टोने-टोटके से रक्षा, अच्छी फसल इत्यादि के लिए आह्वान करता सुनाई देता है –
तोहरे भरोसे ब्रह्म बाबा, झिझिया बनैलिये हो,
ब्रह्म बाबा झिझिया पार होईंहो असवार!
बाकी पिछले कुछ वर्षों में युवाओं के कई समूह-संगठन इस नृत्य को पुनः जीवित करने के प्रयास में जुटे हैं। मगध नरेश जरासंध के शासन में वो मिथिलांचल की अपनी परंपरा को बचा पायें, इसके लिए उन सभी को शुभकामनाएं!