राम जन्मभूमि निर्माण काल में थोड़ा आभार तो आसुरी उत्पातों में रत दुष्टों का भी मानना चाहिए। ऐसे विचित्र प्रश्न खड़े नहीं करते तो कौन उनका उत्तर देता और कैसे अगली पीढ़ियों को विवरण मिलता? ऐसे उत्पातियों का एक प्रश्न रहा है कि राम तो घट-घट में व्याप्त हैं, उन्हें एक मंदिर बनाकर, सिर्फ अयोध्या तक सीमित करना कहाँ से उचित है? ये प्रश्न हमें ले आता है निर्गुण और सगुण भक्ति मार्गों के अंतर पर। बहुत आसानी से भक्ति के इन दो मार्गों में अंतर करना हो तो ये देख लीजिये कि उदाहरण-उक्तियाँ इत्यादि किसकी दी जा रही हैं। जो निर्गुण भक्ति है उसके सबसे प्रसिद्ध संतों में से एक थे कबीर। आप पायेंगे कि अयोध्या में मंदिर बनवाना आवश्यक नहीं था, ये कहने वाले आपको कबीर के ही दोहे सुनाते मिलेंगे। इसकी तुलना अगर करनी हो, तो आपको सूरदास से करनी चाहिए। सूरदास के भजन सगुण भक्ति के भजन होते हैं। मीराबाई के भजनों में भी अधिकांश सगुण स्वरुप ही मिलेगा, लेकिन राम जन्मभूमि मंदिर के विरोधी को थोड़ा सा खुरचते ही अन्दर से नारी विरोधी निकल आएगा, वो मीराबाई का नाम शायद ही कभी लेगा।
जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, सगुण भक्ति करने वाले के लिए भगवान् का साकार रूप होता है। उनका शरीर होगा, उनका जन्म कहीं हुआ होता, उन्होंने शरीर त्याग भी किया होगा। जो निर्गुण भक्ति वाले होते हैं उनके लिए वही ईश्वर सर्वव्यापी हैं। हर जगह होंगे तो एक शरीर तो हो ही नहीं सकता। इसलिए जो निर्गुण भक्ति वाले हैं वो कहेंगे –
कस्तूरी कुण्डली बसै मृग ढ़ूँढ़ै बन माहि।
ऐसे घटी घटी राम हैं दुनिया देखै नाँहि॥
जबकि सगुण भक्ति वाले कहते हैं –
निर्गुन कौन देस को वासी?
मधुकर! हँसि समुझाय, सौंह दे बूझति साँच न हाँसि।।
भारतीय अक्सर सगुण भक्ति के बारे में ही पढ़ रहे होते हैं क्योंकि वो तुलसीदास जी की रचना – रामचरितमानस पढ़ रहे होते हैं। जबरन उन्हें निर्गुण भक्ति वाले कबीर की ओर धकेलने का कोई लाभ नहीं होता। तो सबसे पहला और आसान अंतर ये है कि सगुण भक्ति में ईश्वर का शरीर हो सकता है, निर्गुण में वो निराकार होते हैं।
इस अंतर को आप मार्केटिंग के एक सिद्धांत से समझ सकते हैं। एक होती है पुल मार्केटिंग और दूसरी होती है पुश मार्केटिंग। आपका सामना जिस चिढ़ाने वाली मार्केटिंग से होता है, वो पुश मार्केटिंग होती है। इसमें ग्राहक को धक्का देकर उत्पाद की ओर बढ़ाया जाता है। इंश्योरेंस यानी बीमा का जो व्यापार होता है, वो पुश मार्केटिंग से चलता है। ग्राहक को पता होता है कि बीमा एक जरूरी उत्पाद है, लेकिन बेचने वाला उसे रोज फोन करेगा, दस बार पूछेगा, याद दिलाएगा। ऐसा माना जाता है कि पुश मार्केटिंग केवल आवश्यक उत्पादों पर चल सकता है। जिसे आप शौक से खरीदते हैं, उसे पुश मार्केटिंग से नहीं बेचा जा सकता। सोच कर देखिये, शौक से खरीदी जाने वाली मर्सीडीज जैसी कारों का प्रचार आपने कितनी बार देखा है? इसकी तुलना में फ्लैट-बीमा या बैंक अकाउंट खुलवाने के प्रचार कितने दिखते हैं? अब तुलना कीजिये कि जो रामचरितमानस में सगुण भक्ति पढ़कर बैठा हो, उसे निर्गुण की तरफ धक्का देने का कितना लाभ होगा?
निर्गुण और सगुण भक्ति में दूसरा एक बड़ा अंतर आपको बड़ी आसानी से ये दिख सकता है कि निर्गुण भक्ति के कई उपासक राम नाम लेते दिखेंगे। जैसे कि आपने सुना होगा –
उठ भाग्यो वाराणसी, न्हायो गंग हजार।
पीपा वे जन उत्तम घणा, जिण राम कयो इकबार॥
संत पीपा के दोहे के बाद अगर तुलना में देखेंगे तो अधिकांश सगुण भक्त आपको कृष्ण भक्त मिलेंगे। सूरदास के पद, या मीराबाई जो सगुण में भी मधुरा भक्ति, यानी ईश्वर को पति या प्रियतम के रूप में प्राप्त करने की कामना करती हुई दिखेंगी, वो कृष्णभक्त थीं, ये तो पता ही होगा। ऐसे न भी याद आये तो उनका भजन याद कर लीजिये – मेरे तो गिरिधर गोपाल, दूसरो न कोय। इसकी वजह से भी जो राम जन्मभूमि मंदिर के विरोधी हैं, वो आपको निर्गुण वाले राम की याद दिला रहे होते हैं। एक डर उनका ये भी है कि अगर कहीं सगुण भक्ति की ओर लोग बढ़े और कृष्ण भक्ति याद आई तो फिर तो राम जन्मभूमि मंदिर बन ही चुका है, अब तो बात श्री कृष्ण जन्मभूमि यानी मथुरा की ओर बढ़ेगी। फिर उनकी जो राजनीति है, उसके लिए एक नयी समस्या खड़ी हो जाएगी। इसलिए निर्गुण भक्ति की बात कर रहे व्यक्ति से आप ये भी पूछ सकते हैं कि तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है कॉमरेड?
सगुण और निर्गुण भक्ति का इतना सा अंतर बताते ही आपका ध्यान अब तीसरे अंतर पर चला गया होगा कि सगुण भक्ति वाला तीर्थयात्रा में विश्वास रखता होगा। वो गंगा को पवित्र मानेगा, जबकि निर्गुण वाला “मन चंगा तो कठौती में गंगा” कह देगा। संत पीपा भी वाराणसी-गंगा की बात कैसे करते हैं? मूर्तिपूजा पर भी सगुण और निर्गुण में अंतर आराम से दिखता है। सूरदास अपने लिए ईश्वर को तीन रूपों में बाँट लेते हैं। श्री कृष्ण किसी और लोक वाले परब्रह्म भी होते हैं, वही पूर्ण पुरुषोत्तम भी हैं और वही सबमे व्याप्त अंतर्यामी ब्रह्म भी हैं। सगुण भक्ति की हिसाब से जो निर्गुण ईश्वर है वही आवश्यकता पड़ने पर सगुण के रूप मे अवतार भी लेते हैं।
वेद उपनिषद जासु को निरगुनहिं बतावै ।
भक्त बछल भगवान धरे तन भक्तिनि के पास।।
यहाँ सगुण भक्ति में कहते हैं कि जिस ईश्वर को वेदों-उपनिषदों ने निर्गुण बताया है, वही गोपियों के लिए शरीर भी धारण करते हैं। मतलब सगुण भक्ति में ईश्वर को साकार रूप दिया गया जो आराम से मूर्ति पूजा के समर्थन में होता है। इसके विपरित यदि हम निर्गुण भक्ति की बात करें तो इसके अंदर ईश्वर को केवल निराकार रूप माना गया है। मूर्ति पूजा का घोर विरोध किया गया है। कबीर कहेंगे –
पाहन पूजे हरि मिले, मैं तो पूजूं पहार। याते चाकी भली जो पीस खाय संसार।।
ऐसे ही दूसरे पंथों के लिए भी उनका कहना था –
कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई बनाय। ता चढि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय॥
यहाँ भी आपको निर्गुण भक्ति का ढोंग करते कॉमरेड की धूर्तता दिख जाएगी, क्योंकि पाहन पूजे हरि मिले वाला दोहा तो वो हिन्दुओं को सुनाएगा, लेकिन कांकर पाथर जोरि के वाला दोहा सुनाना वो सुविधाजनक तरीके से भूल जायेगा।
तुलसीदास जी का एक दोहा है जिसमें वो कहते हैं –
हम लखि लखहि हमार लखि हम हमार के बीच ।
तुलसी अलखहि का लखहि राम नाम जप नीच ।।
इस दोहे की कहानी कुछ यूँ है कि तुलसीदासजी एक निर्गुण भक्ति वाले ‘अलखिया’ साधु पर भड़क जाते हैं। वो केवल ‘अलख-अलख’ चिल्लाया करता था। दोहे में उसे धिक्कारते हुए तुलसीदास कहते हैं कि तू पहले स्वयं को जान, फिर अपने यथार्थ ब्रह्म स्वरूप का अनुभव कर। उसके बाद कहीं जाकर जीव और ब्रह्म के बीच में रहने वाली माया को पहचान पायेगा। इसलिए तुलसीदासजी कहते हैं अरे नीच! इन तीनों को समझे बिना तू उस अलख परमात्मा को क्या समझ सकता है? अत: ‘अलख-अलख’ चिल्लाना छोड़कर प्रभु के रामनाम का जप कर।
राम नाम अवलंब बिनु परमारथ की आस ।
बरषत बारिद बूंद गहि चाहत चढ़न अकास ।।
ये भी तुलसीदासजी का ही है जहाँ वो कह रहे हैं कि जो भगवान राम के नाम का सहारा लिए बिना ही परमार्थ व मोक्ष की आशा करता है, वो जैसे बरसते हुए बादल की बूंद को पकड़कर आकाश में चढ़ना चाहता है। जैसे बारिश की बूंद को पकड़कर आकाश में चढ़ना असंभव है, वैसे ही रामनाम का जप किए बिना परमार्थ की प्राप्ति असम्भव है।
यहाँ तक तो थी भक्ति की बात, अब प्रश्न ये भी उठता है कि दर्शन कौन सा? परंपरागत जो गुरुकुल होते थे, उनके क्षय से अक्सर आम आदमी को समझने में मुश्किल होती है कि अद्वैत क्या है, द्वैत क्या है या विशिष्टाद्वैत क्या है? तुलसीदास कौन से दर्शन को मानते थे? इसे दर्शनशास्त्र के एक प्रसिद्ध से उदाहरण से समझ सकते हैं। एक हरे भरे पेड़ पर बैठे हुए तोते की कल्पना कीजिये। दोनों का रंग हरा ही है, इसलिए दोनों में कोई भेद नहीं ऐसा कहना अद्वैत है। आचरण में या उपयोग में पेड़ और तोता बिलकुल अलग हैं इसलिए दोनों भिन्न हैं, ये कहना द्वैत हुआ। यही उदाहरण बर्तनों के मामले में भी दिया जाता है। घड़ा भी मिट्टी है और दूसरा कोई बर्तन भी मिट्टी से ही बना है ऐसा कहने वाला अद्वैत वाला होगा। उपयोग में ग्लास अलग होगा और कड़ाही अलग होती है इसलिए दोनों में भेद है, ये कहने वाला द्वैत का मत है। अंत में कभी टूटने पर ग्लास-कड़ाही दोनों मिट्टी ही हो जाएगी या दोनों पिघलकर लोहा ही बन जाने वाले हैं, यानि विशिष्ट परिस्थितियों में दोनों एक हैं, ये विशिष्टाद्वैत होगा।
ये भी याद रखिये कि हाल के दो प्रसिद्ध दर्शनिक आदिशंकराचार्य और स्वामी विवेकानंद, दोनों अद्वैत वेदांती थे, इसलिए आप अद्वैत मत का नाम अधिक सुनते हैं। हिन्दुओं के लिए आत्मा का परमात्मा में लीन हो जाना संभव है, इसलिए उनके लिए अद्वैत समझने या मानने में उतनी कठिनाई नहीं होती। हिन्दू बड़े आराम से “अहं ब्रह्मास्मि” कह सकता है और कोई उससे चिढ़ेगा नहीं। इसकी तुलना में कुछ दूसरे रिलिजन या मजहब ऐसे भी होते हैं जहाँ इन्सान का खुदा हो जाना मुमकिन नहीं। वहाँ अगर कोई मंसूर या सरमद “अनलहक” कह दे यानि अहं ब्रह्मास्मि जैसे अर्थ वाला, मैं ही खुदा हूँ कह दे, तो उसे टुकड़े-टुकड़े कर दिया जायेगा। इसलिए सभी धर्म-मजहब-रिलिजन एक ही होते हैं, ऐसे किसी धोखे भरे वक्तव्य के बहकावे में न आयें। सिर्फ भक्ति के बारे में और जानना हो तो रामचरितमानस में जहाँ शबरी प्रसंग आता है, वहाँ देखिये। भगवान् राम स्वयं माता शबरी को नवधा भक्ति का उपदेश दे रहे होते हैं, आप वहाँ से स्वयं पढ़ सकते हैं।
बाकी अगली बार निर्गुण भक्ति के नाम पर मंदिर को व्यर्थ बताया जाए तो उनसे सगुण भक्ति की भी बात कर लीजिये! अपने धर्म के बारे में स्वयं थोड़ा स्वाध्याय तो करना ही चाहिए न?