यूनिसेफ : सेल्फ़-एस्टीम बेस्ड ‘आधाफुल’ कॉमिक सीरीज से किशोर-किशोरियों में बढ़ रहा आत्मविश्वास
किशोर-किशोरियों में अच्छा दिखने की ललक स्वभाविक है।
कई बार जब बच्चों को किशोरावस्था में उनके रंग-रूप या शारीरिक बनावट को लेकर अनावश्यक नकारात्मक टिप्पणियाँ सुनने को मिलती हैं, तो उनके आत्मविश्वास पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
14 वर्षीया चांदनी परवीन पूर्णिया के कसबा प्रखंड अंतर्गत आदर्श मध्य विद्यालय की आठवीं की छात्रा है। चांदनी के पड़ोसी उसके छोटे कद को लेकर हमेशा ताना मारा करते थे। उसे नाम से पुकारने के बज़ाए वे हमेशा नाटी कहकर पुकारते थे। इस वजह से न सिर्फ़ चांदनी का आत्मविश्वास बुरी तरह से हिल गया था बल्कि वह अपनी पढ़ाई पर भी ध्यान नहीं दे पा रही थी।
छठी कक्षा में पढ़ने वाली उसकी स्कूल की सहपाठी कोमल कुमारी को भी कुछ ऐसी ही समस्या का सामना करना पड़ा। उसके सहपाठी और पड़ोसी उसे मोटी कहकर उसका मजाक उड़ाते रहते थे जिसकी वजह से वह हमेशा चिंतित रहा करती थी। उसके मन में हीनभावना भरती जा रही थी और पढाई-लिखाई का नुकसान अलग से।
कसबा ब्लॉक के ही मध्य विद्यालय मल्हारिया में आठवीं कक्षा की छात्रा स्नेहा कुमारी ने अपना अनुभव साझा करते हुए कहा कि उसे घर के ज्यादातर कामकाज करने पड़ते थे जिससे उसकी पढ़ाई पर बुरा असर पड़ता था। इसके अलावा, उसे बाहर जाने से लेकर खेलने-कूदने व अपनी पसंद की चीजें ख़रीदवाने को लेकर कई प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता था।
जबकि उसके छोटे भाई को सब कुछ करने की छूट है।
वह जब भी इसे लेकर शिकायत करती तो उसकी मां की यही सलाह होती कि “लड़कियां खुद की तुलना लड़कों से नहीं कर सकतीं”।
दरअसल, अधिकतर लड़कियों ने बताया कि उन्हें लगभग हर दिन घर-परिवार और समाज में लैंगिक भेदभाव से दो-चार होना पड़ता था।
किशोरावस्था एक ऐसा चरण है जब बच्चे कई शारीरिक, भावनात्मक और व्यवहारिक बदलावों से गुजरते हैं जो उनमें चिंता, आत्मसम्मान में कमी का कारण बनने के अलावा उनमें अवसाद भी पैदा कर सकते हैं। किशोर लड़के और लड़कियों द्वारा सामना की जा रही सबसे आम समस्याओं में अपने रंग-रूप और शारीरिक बनावट को लेकर असामान्य सजगता शामिल हैं। घोर उपभोक्तावाद के इस युग में सोशल मीडिया, सिनेमा और मनोरंजन के अन्य साधनों की दिन-ब-दिन बढ़ती दख़लंदाज़ी से अधिक से अधिक किशोर-किशोरियों को इस तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।
किशोर वर्ग में प्रचलित इन समस्याओं के निदान हेतु बिहार शिक्षा परियोजना परिषद (बीईपीसी) द्वारा छठी-आठवीं कक्षा के छात्र-छात्राओं के बीच सकारात्मक आत्म-सम्मान सुनिश्चित करने के साथ-साथ अपनी शारीरिक बनावट व रंग-रूप के प्रति आत्मविश्वास की भावना को बढ़ावा देने के लिए यूनिसेफ के सहयोग से विकसित आधाफुल नाम की एक कॉमिक बुक श्रृंखला तैयार की गई है।
आत्म-सम्मान आधारित जीवन कौशल कार्यक्रम (मैं कौन हूं) के उद्देश्यों के बारे में विस्तार से बताते हुए बीईपीसी के राज्य कार्यक्रम अधिकारी (इक्विटी) कुमार अरविंद सिन्हा ने कहा, “हमारा उद्देश्य हानिकारक लिंग मानदंडों और आदर्श रूप-रंग के बारे में जागरूकता पैदा करना है। इससे 11-14 वर्ष की आयु के बच्चों के बीच शारीरिक आत्मविश्वास और आत्म-सम्मान बढ़ाने में भी मदद मिलेगी। यूनिसेफ और डव फाउंडेशन के सहयोग से इसे वर्तमान में बिहार के 13 जिलों – अररिया, बेगूसराय, भागलपुर, दरभंगा, गया, पूर्णिया, पटना, सारण, सहरसा, सीतामढ़ी, शेखपुरा, नालंदा और वैशाली में लागू किया गया है। हमें हर जगह से सकारात्मक प्रतिक्रियाएं मिल रहीं हैं तथा लक्षित आयु वर्ग के 21 लाख से अधिक छात्र-छात्राएं इस कार्यक्रम से लाभान्वित हो रहे हैं।
यूनिसेफ बिहार के शिक्षा अधिकारी, बसंत कुमार सिन्हा ने बताया कि आधाफुल नामक कॉमिक सीरीज को बिहार सहित भारत के आठ राज्यों में लागू किया गया है। इस कॉमिक-श्रृंखला को यूनिसेफ और बीबीसी एक्शन मीडिया के बीच साझेदारी के माध्यम से परिकल्पित टेलीविजन श्रृंखला से संशोधित किया गया है। उन्होंने आगे बताया कि विद्यालयों में क्रियान्वयन से पूर्व 385 राज्य स्तरीय मास्टर ट्रेनरों ((313 पुरुष और 73 महिला) को कॉमिक सीरीज के तहत शामिल छह पुस्तकों को लागू करने के उद्देश्यों और बच्चों के लिए अधिक से अधिक उपयोगी बनाने के तरीकों के बारे में अप्रैल से जून 2022 के बीच सात बैचों में आवासीय प्रशिक्षण दिया गया। इसके बाद दूसरे चरण में 11050 स्कूलों के नोडल शिक्षकों का प्रशिक्षण हुआ जो नवंबर 2022 तक चला। दिसंबर 2022 से कक्षा 6 से 8 तक के बच्चों के लिए इसे लागू किया गया। इसके तहत नोडल शिक्षकों द्वारा बच्चों को रोचक ढंग से कहानी सुनाने एवं उनकी देखरेख में बच्चों से कहानी के पात्रों का रोल प्ले करवाने समेत अन्य गतिविधियों के द्वारा जागरूक किया जा रहा है।
किशोरों के बीच जागरूकता पैदा करने और उनमें आत्मविश्वास बढ़ाने के उद्देश्य से शुरू किए गए इस कार्यक्रम ने अपना प्रभाव दिखाना शुरू कर दिया है। कहानियों में किशोरावस्था से जुड़ी समस्याओं व उनके समाधान को बेहद रोचक ढंग से दर्शाया गया है, जिसकी वजह से बच्चों द्वारा इस कॉमिक श्रृंखला को काफ़ी पसंद किया जा रहा है। बदलीपुर नामक स्थान पर रहने वाले “आधाफुल” के तीन मुख्य पात्रों – तारा (12), अदरक (15) और किट्टी (16) जिस तरह से अपने स्कूल और आसपास के सामाजिक मुद्दों का हल निकालते हैं, उससे बच्चे ख़ासा प्रभावित हैं और उनसे प्रेरित भी।
कसबा ब्लॉक अंतर्गत मध्य विद्यालय दोगच्छी के नोडल शिक्षक पवन कुमार शर्मा ने कहा कि हमारे स्कूल में बच्चे कहानी सुनाने के सत्र और रोल प्ले के दौरान सक्रिय रूप से भाग लेते हैं। कईयों ने कॉमिक पुस्तकों में दर्शायी गई परिस्थितियों से मिलती-जुलते अपने अनुभवों को भी साझा किया है। इससे एक तरफ जहां बच्चों की झिझक दूर हो रही है और वे अपनी समस्याओं के बारे में खुल कर बात कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर उनके आत्मविश्वास में भी बढ़ोतरी हुई है और वे इन समस्याओं से धीरे-धीरे निजात पा रहे हैं। जिन बच्चे-बच्चियों में अपने रंग-रूप, कद-काठी आदि को लेकर एक हीनभावना घर कर गई थी, वे अब इन बातों की परवाह नहीं करते और पढ़ाई पर फोकस कर रहे हैं। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इस कार्यक्रम के ज़रिए परिवार, रिश्तेदारों और समाज द्वारा निर्धारित ग़लत एवं भेदभावपूर्ण मानदंडों को तोड़ने में मदद मिल रही है।
इसी स्कूल की 14 वर्षीय नूरानी परवीन ने कहा कि मेरे पड़ोस में ज्यादातर लड़कियों की शादी 15 या 16 साल की उम्र में कर दी जाती है। हालांकि मेरे माता-पिता को कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन मेरे पड़ोसी ताने मारते थे कि एक लड़की होने के बावजूद वह बाजार और अन्य जगहों पर अकेले ही जा रही है। यहाँ तक कि उन्होंने मेरे स्कूल जाने पर भी यह कहकर मज़ाक उड़ाया कि शादी के बाद परिवार चलाने में पढ़ाई-लिखाई से कोई फायदा नहीं है। मैं बहुत तनाव में रहने लगी थी कि कहीं मेरे माता-पिता भी दबाव में आकर मेरी शादी न कर दें और मेरा स्कूल छूट जाए। लेकिन आधाफुल की कहानी ‘खजाने का नक्शा’ पढ़ने के बाद मुझे एहसास हुआ कि लड़कों और लड़कियों में क्षमता और कौशल के मामले में कोई अंतर नहीं है। साथ ही, इसने मुझे अपनी चिंता पर काबू पाने और नए जोश के साथ पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित करने में मदद की।
आत्मबोध की अपना अनुभव साझा करते हुए नूरानी के सहपाठी सौरभ कुमार ने कहा कि वह अपने दोस्तों को धारिंगा (एक किस्म के कीड़े का स्थानीय नाम), मोटा, चुहा, डिंगी (डींग मारने वाला) जैसे आपत्तिजनक शब्दों से बुलाता था। लेकिन आधाफुल के सत्रों में भाग लेने, विशेष रूप से रंग-रूप तुलना पर आधारित कहानी ‘गायब हाथी’ सुनने के बाद उसे अपनी गलतियों का एहसास हुआ। तब से उसने प्रण किया कि वह किसी के रूप-रंग, शारीरिक बनावट को लेकर उसका मजाक नहीं उड़ाएगा।
कसबा प्रखंड के मध्य विद्यालय मलहरिया के प्रधानाध्यापक विद्या प्रसाद सिंह ने कॉमिक बुक श्रृंखला पर आधारित इस कार्यक्रम की प्रशंसा करते हुए कहा कि बच्चों को पॉजिटिव सेल्फ़-एस्टीम और बॉडी कॉन्फिडेंस के बारे में शिक्षित करने में ये किताबें बहुत प्रभावी साबित हुई हैं। बच्चों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करने वाले इन गंभीर मुद्दों के बारे में खेल-खेल में ही बहुत कुछ सीखने को मिल जाता है। बच्चे कॉमिक के किरदारों को निभाने के लिए अपनी बारी का बेसब्री से इंतजार करते हैं। कुल मिलाकर, इससे बच्चों के बीच एक सकारात्मक सोच पैदा हुई है।