भारत के स्वतंत्रता संग्राम में जनजातीय समाज का रहा है विशेष योगदान
मां भारती को अंग्रेजी शासनकाल की दासता की यन्त्रणा से मुक्त कराने हेतु जनजातीय समाज ने अंग्रेजों को नाको चने चबवा दिए थे। दरअसल, जनजातीय समाज चूंकि बहुत घने जंगलों में निवास करता था अतः वह अंग्रेजों की पकड़ से कुछ दूर ही रहा, हालांकि समय समय पर अंग्रेजी शासन को परेशान करने में सफल जरूर रहा। ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ भारत के विभिन्न क्षेत्रों में कई प्रकार के आंदोलन जनजातीय समाज द्वारा चलाए गए थे। इन आंदोलनों को चलाने में आदिवासीयों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही है, इन आदिवासी समुदायों में तामार, सन्थाल, खासी, भील, मिजो और कोल विशेष रूप से शामिल रहे हैं।
भारत में इतिहास को बहुत तोड़ मरोड़कर लिखा गया है। वर्तमान भारतीय इतिहास का अधय्यन करने पर ध्यान में आता है कि भारत के इतिहास को केवल लगभग 800 वर्षों के मुगल शासकों के इर्द गिर्द समेट दिया गया है और भारत में मुगल शासकों का कालखंड जैसे स्वर्णकाल रहा है तथा भारत के इतिहास में इस कालखंड को विशेष स्थान दिया गया है। मुगल शासकों के पश्चात भारत में अंग्रेजी शासनकाल के दौरान जनजातीय समाज द्वारा मां भारती को स्वतंत्रता दिलाने के दिए गए महान योगदान का तो भारत के वर्तमान इतिहास में कहीं वर्णन ही नहीं मिलता है। जनजातीय समाज के कई युवा योद्धा जिन्होंने अंग्रेजों के क्रूर शासन के विरुद्ध युद्ध का बिगुल बजाने में सफलता हासिल की थी, की सूची पर यदि ध्यान दें, तो इस सूची में हम मुख्य रूप से शामिल पाएंगे भगवान बिरसा मुंडा, शहीद वीर नारायण सिंह, श्री अल्लूरी सीताराम राजू, रानी गौडिल्यू और सिद्धू एवं कान्हूं मुर्मू को।
भगवान बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को हुआ था, आप मुंडा जनजाति के सदस्य थे एवं आपने 19वीं शताब्दी के अंत में आधुनिक झारखंड एवं बिहार के आदिवासी क्षेत्रों में ब्रिटिश शासन के दौरान एक भारतीय आदिवासी धार्मिक सहस्त्राब्दी आंदोलन का नेतृत्व किया था। बिरसा मुंडा ने भारत की आजादी में अहम भूमिका निभाई थी। उन्होंने शोषक ब्रिटिश औपनिवेशिक व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई लड़ी। भगवान बिरसा मुंडा की तरह ही देश के अन्य राज्यों में भी जनजातीय समाज के कई रणबांकुरों द्वारा अपने प्राणों की आहुति देकर भारत को अंग्रेजों के क्रूर शासन से मुक्त कराने में अपना योगदान दिया गया था। भगवान बिरसा मुंडा को “धरती आबा” भी कहा जाता है।
इसी प्रकार, शहीद वीर नारायण सिंह को छत्तीसगढ़ में सोनाखान का गौरव माना जाता है, आपने वर्ष 1856 के अकाल के बाद व्यापारियों के अनाज के गोदामों को लूटकर गरीब नागरिकों के बीच बांट दिया था। आपके बलिदान ने आपको आदिवासी नेता बना दिया एवं आप 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में छत्तीसगढ़ के पहले शहीद बने थे। श्री अल्लूरी सीताराम राजू का जन्म 4 जुलाई 1897 को आन्ध्रप्रदेश में भीमावरम के पास मोगल्लु गांव में हुआ था। श्री अल्लूरी को अंग्रेजों के खिलाफ “रम्पा विद्रोह” का नेतृत्व करने के लिए सबसे अधिक याद किया जाता है, जिसमें आपने विशाखापत्तनम और पूर्वी गोदावरी जिलों के आदिवासी नागरिकों को अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह करने के लिए संगठित किया था। आपका अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलन उस खंडकाल में बंगाल के क्रांतिकारियों से प्रेरणा प्राप्त करता था। रानी गौडिल्यू नागा समुदाय की आध्यात्मिक एवं राजनैतिक नेता थीं। आपने भारत में अंग्रेजी शासनकाल के खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व किया था। केवल 13 वर्ष की आयु में आप अपने चचेरे भाई हाईपौ जादोनांग के हेराका धार्मिक आंदोलन में शामिल हो गईं थी। आपके लिए नागा लोगों की स्वतंत्रता के लिए भारत के व्यापक आंदोलन का हिस्सा थीं। आपने मणिपुर क्षेत्र में गांधी जी के संदेश का प्रचार प्रसार भी किया था। 30 जून 1855 को 1857 के विद्रोह से दो वर्ष पूर्व दो सन्थाल भाईयों सिद्धू और कान्हू मुर्मू ने 10,000 संथालों को एकत्रित किया एवं अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की घोषणा कर दी थी। आपके साथ एकत्रित हुए समस्त आदिवासियों ने अंग्रेजों को अपनी मातृभूमि से भगाने की शपथ ली थी। मुर्मू भाईयों की बहनों, फूलो एवं झानो, ने भी अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह में सक्रिय भूमिका निभाई थी।
पिछले कुछ वर्षों के दौरान केंद्र सरकार एवं विभिन्न राज्य सरकारों ने देश को स्वतंत्रता दिलाने में अतुलनीय योगदान करने वाले रणबांकुरों के योगदान को न केवल पहचाना है बल्कि इस योगदान को भारतीय नागरिकों के बीच रखने के प्रयास भी किया है। वर्ष 2021 में स्वतंत्रता दिवस के 75वें समारोह के उपलक्ष में केंद्र सरकार द्वारा बहादुर आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों को सम्मानित करने हेतु “15 नवम्बर” को “जनजातीय गौरव दिवस” के रूप में मनाए जाने का निर्णय लिया गया था। इसके बाद से प्रत्येक वर्ष 15 नवम्बर के दिन को सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण और राष्ट्रीय गौरव, वीरता एवं आतिथ्य के भारतीय मूल्यों को बढ़ावा देने में आदिवासियों के प्रयासों को मान्यता देने हेतु भारत में “जनजातीय गौरव दिवस” का आयोजन किया जा रहा है। 15 नवम्बर को ही बिरसा मुंडा की जयंती भी रहती है, जिन्हें भारत में जनजातीय समाज में भगवान के रूप में सम्मानित किया जाता है।
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में जनजातीय समाज के योगदान को याद करते हुए अगस्त 2016 में दिल्ली के लाल किले से प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के आह्वान पर, रांची स्थित 150 वर्षों से अधिक पुरानी विरासत इमारत को केंद्र एवं राज्य सरकार के संयुक्त प्रयासों से स्वतंत्रता सेनानी संग्रहालय के रूप में संरक्षित एवं पुनः स्थापित किया गया है। यह इमारत पहले एक जेल के रूप में इस्तेमाल हो चुकी है, जहां भगवान बिरसा मुंडा को कैद किया गया था। 25 एकड़ में फैले इस संग्रहालय में कई पर्यटक आकर्षण हैं, जिनमें अंडमान जेल की तर्ज पर मनमोहक लाइट और साउंड शो का आयोजन किया जाता है तथा भगवान बिरसा मुंडा के जन्म से मृत्यु तक के जीवन के विभिन्न चरणों को दिखाने वाली तीन दीर्घाओं (चलचित्र कक्ष) में लगभग 20 मिनट की एक आडियो विजुअल फिल्म दिखाई जाती है। संग्रहालय के बाहरी लॉन में उलीहातू गांव को फिर से बनाया गया है। संग्रहालय में भगवान बिरसा मुंडा की 25 फीट की मूर्ति भी है। इसके साथ ही, संग्रहालय में विभिन्न आंदोलनों से जुड़े अन्य स्वतंत्रता सेनानियों जैसे शहीद बुधू भगत, सिद्धू-कान्हू, नीलाम्बर-पीताम्बर, दिवा-किसुन, तेलंगा खाड़िया, गया मुंडा, जात्रा भगत, पोटो एच, भागीरथ मांझी, गंगा नारायण सिंह की नौ फीट की मूर्तियां भी शामिल हैं। बगल के 25 एकड़ रकबे में स्मृति उद्यान को विकसित किया गया है और इसमें संगीतमय फव्वारा, फूड कोर्ट, चिल्ड्रन पार्क, इन्फिनिटी पूल, उद्यान और अन्य मनोरंजन सुविधाएं मौजूद हैं। इस संग्रहालय का उद्घाटन भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी द्वारा 15 जवंबर 2021 को पहिले जनजातीय गौरव दिवस के शुभ अवसर पर किया गया था।
इसी प्रकार, आज केंद्र सरकार एवं राज्य सरकारों द्वारा विशेष रूप से जनजातीय समाज के हितार्थ आर्थिक क्षेत्र, शिक्षा के क्षेत्र, चिकित्सा के क्षेत्र, आदि में कई प्रकार की योजनाएं पूरे देश में चलाई जा रही हैं।