उन घटनाओं का जिक्र सिर्फ इसलिए नहीं हुआ क्योंकि #गोदी_मीडिया तुम्हारे नियंत्रण में थी, और सच बता देने के लिए आम लोगों के पास कोई सोशल मीडिया नहीं था। किश्तवाड़ में 1993 में बस हाइजेक की गई, जैसा “मिस्टर एंड मिसेज अय्यर” में राहुल बोस और नंदिता दास दिखाते हैं कि बस से चुनकर गुंडे सिर्फ मुहम्मडेनों को उतार लेते हैं, असल में उसका उल्टा हुआ था। किश्तवाड़ आतंकी हमले में इस्लामिस्ट आतंकियों ने सिर्फ हिन्दू मार दिए और बाकी को छोड़ दिया गया था। चुन-चुन कर हिन्दुओं को 25 जनवरी 1998 को वंधामा में मारा गया था। उधमपुर में प्राणकोट और डाकिकोट नाम के गावों में 17 अप्रैल 1998 को मारा गया था।
चित्तीसिंहपुर में 36 सिखों को गाँव के दो गुरुद्वारों के सामने कतार में खड़ा किया गया। पुरुषों को कतार में खड़ा करके 20 मार्च 2000 को गोली मार दी गयी थी। अमरनाथ के तीर्थयात्रियों को अनंतनाग और डोडा जिलों में मारा गया था। इसमें करीब हिन्दू अमरनाथ यात्री 1 और 2 अगस्त को मारे गए थे। सिर्फ एक अगस्त को हमला करके छोड़ा नहीं था, 2 अगस्त को जब पहलगाम के नुनवान बेस कैंप पर हमला किया था तो उसमें 32 लोग मारे गए जसमें 21 हिन्दू तीर्थयात्री थे, 7 मुहम्मडेन दुकानदार और 3 सुरक्षाकर्मी। पूरी बेशर्मी से कुछ पालतू पिद्दी कहेंगे कि नहीं-नहीं आतंक का कोई मजहब नहीं होता जी। देखो-देखो कुछ मुहम्मडेन भी तो मारे गए हैं जी!
पुलवामा के नन्दीमार्ग गाँव में 23 मार्च 2003 को हिन्दू घर से निकाल कर मारे गए थे। डोडा में 30 अप्रैल 2006 को दो अलग-अलग वारदातों को अंजाम दिया गया जिसमे 54 हिन्दू चुन-चुनकर मारे। इस घटना में 4 छोटी बच्चियाँ भी मार दी गयी थीं जो 3 वर्ष तक की थीं। इन सभी को तुम्हारी #गोदी_मीडिया ने सिर्फ आतंकी वारदात कहकर पूरी बेशर्मी से छुपाया है। ये तो सोशल मीडिया के दौर में सूचनाओं में #लोकतंत्र आया और दूसरे पक्ष यानी पीड़ित पक्ष की आवाज सुनाई भी देने लगी और लोग सिर्फ मरने वालों की गिनती नहीं, किसने मारा और क्यों मारा जैसे सवाल करने लगे। इस किसने और क्यों का जवाब इतना भारी लग रहा है कि उस दौर के नेताओं के अन्डोले अब जाति से लेकर पूछने वालों को #छाम्प्दायिक तक कहकर अपने आकाओं का बचाव करने उतरे हैं।
जो #पक्षकार कहता है कि वो निष्पक्ष है या उसका काम निष्पक्ष रहना है, असल में वो डरपोक, कायर और धूर्त है। पत्रकार का काम निष्पक्ष रहना होता है, ऐसा किसी किताब में नहीं लिखा। ऐसा कहीं नहीं पढ़ाया जाता है। संवाददाता जरूर निष्पक्ष होकर सूचना देता है, पत्रकार का काम उस सूचना के पीछे के तथ्यों को सामने लाना होता है। पत्रकार का काम निष्पक्ष होना नहीं, सत्य के पक्ष में खड़ा होना होता है। जो बातें सत्ता छुपा रही है, उसे सामने लाना होता है। अब प्रश्न है कि #सत्ता कौन है, कैसे पहचानें सत्ता को? तो उसका एक बहुत सीधा सा तरिका है, जिसके बारे में बोलते ही विरोध का सामना करना पड़े, तुम्हारी बात दबाई जाने लगे, वही असली सत्तापक्ष है। अब सोचकर बताइये, किसके बारे में बोलते ही विरोध का सामना करना पड़ता है?
याद रखिये कि लोकतंत्र में संसद कोई जादू से नहीं बनता। सांसद जन-प्रतिनिधि होते हैं, यानी जनता जो चाहती है, उन्हें वही करना है। उनकी मर्जी से आप नहीं चलते, आपकी मर्जी से उन्हें चलना है। फिल्म जैसी चीजों पर बॉयकोट का सफल प्रयोग करके जनता देख चुकी है। इसका असर होता है और बहुत तेजी से होता है। जैसे वो नाम पूछकर गोली मारते हैं, वैसे ही नाम पूछकर आपको व्यापार करना शुरू करना होगा और नतीजे निकलेंगे। कुछ ही वर्ष पहले वो कह रहे थे कि राष्ट्रवाद की बातें चाइनीज मोबाइल से पोस्ट की गयीं और मजाक उड़ा लेते थे। आज नहीं कह पाते क्योंकि सिर्फ मुट्ठी भर लोगों के अड़े रहने का परिणाम ये हुआ कि वो चीजें अब भारत में बनती हैं।
बाकी रामायण-महाभारत जैसे ग्रंथों से आपको दूरी बनाने के लिए इसलिए भी कहा जाता है, क्योंकि आपने उनसे कहीं कुछ सीख लिया तो विदेशियों की फेंकी बोटियों पर पलनेवाले टुकड़ाखोरों की सत्ता कैसे चलेगी? अंगद की तरह कहीं पांव जमाकर अड़ जाने पर रावण का मुकुट भी चरणों में डोलता नजर आएगा, पांव अड़ाइये!