कथित रूप से बांग्लादेश में मौजूद अमेरिकी नागरिकों की सुरक्षा और अमेरिकी हितों का ध्यान रखने के लिए, और असल में भारतीय सेना की मदद से बांग्लादेश स्वतंत्र न हो सके, इसके लिए यूएसएस एंटरप्राइज नाम के एयरक्राफ्ट कैरिअर की कमान में यूएस सेवेंथ फ्लीट कहलाने वाला जहाजी बेड़ा बंगाल की खाड़ी में दाखिल हो गया था। थोड़े ही दिनों पहले 1970 में बांग्लादेश में जो चुनाव हुए थे उनमें वहाँ की पार्टी “अवामी लीग” ने पूर्वी पाकिस्तान के अलग होने की वकालत की थी और उसे स्पष्ट बहुमत भी मिला था। पाकिस्तान की संसद के 300 सीट थे और उनमें से 162 पूर्वी पाकिस्तान में आते थे। इनमें से 160 पर अवामी लीग जीत गयी थी। इसके बाद भी पाकिस्तान पीपल्स पार्टी (जिसे 81 सीटें मिली थी) उसने अवामी लेग को सरकार नहीं बनाने दी और पाकिस्तानी फौजें दमन के लिए उतार दी गयीं।
इस दौर में शीत युद्ध भी चल रहा था और रूस से नेहरु की समाजवादी मैत्री के कारण, पाकिस्तान तबतक अमेरिका का पिट्ठू बना हुआ था। जाहिर है भारत “मुक्तिवाहिनी” यानि नयी-नयी बनी बांग्लादेशी सेना की मदद कर रहा था तो अमेरिका पाकिस्तानी सेना की मदद के लिए उतर आया था। वियतनाम से निकलकर यूएसएस एंटरप्राइज के श्रीलंका पहुँचने की खबर भारतीय सेनाओं को मिल चुकी थी। इस जंगी बेड़े में 75000 टन का यूएसएस एंटरप्राइज था जिसपर 70 लड़ाकू और बमवर्षक विमान हो सकते थे। इसके अलावा मिसाइल क्रूजर यूएसएस किंग, मिसाइल डिस्ट्रॉयर यूएसएस डेकाटूर, पारसंस और टार्टर सैम था साथ ही अम्फिबीयस अर्थात पानी से जमीन तक पर युद्ध करने में सक्षम यूएसएस ट्रिपोली भी था। उनका साथ देने के लिए यूके की जल-सेनाएं भी उतर आई थीं। ब्रिटिश नेवी के एयरक्राफ्ट कैरियर एचएमएस ईगल और कमांडो कैरियर एचएमएस एल्बिअन की अगुवाई में पश्चिम से कई ब्रिटिश जहाज भारत की ओर बढ़ रहे थे।
इस किस्म के हमले को पिंसर अटैक कहा जाता है। दो ओर से, यानी अरब की खाड़ी की तरफ से ब्रिटिश हमले और बंगाल की खाड़ी की ओर से अमेरिकी हमले की संभावना के बीच भारत फंसा हुआ था। इस समय तक भारतीय वायुसेना ने पाकिस्तानी वायुसेना को तो करीब-करीब साफ कर दिया था लेकिन अमेरिकी और ब्रिटिश हमलावरों से निपटने के लिए भारत के पास यूएसएस एंटरप्राइज की करीब एक तिहाई शक्ति का, यानी 20000 टन का 20 हवाई जहाज वाला कैरियर विक्रांत पूर्वी कमान में था। ऐसे दौर में भारत ने रूस से मदद मांगी और 13 दिसम्बर को दो क्रूजर, दो डिस्ट्रॉयर, छह पनडुब्बियों और सपोर्ट के जहाजों के साथ रुसी मदद भारत के लिए रवाना हो गयीं। आमने सामने की कोई भी लड़ाई, अमेरिका और रूस दोनों को ही भारी पड़ती और इससे बड़े स्तर पर एक और युद्ध के शुरू हो जाने की संभावना थी।
इससे बचने के लिए रुसी पक्ष ने एक तरीका अपनाया। उसने पनडुब्बियों को सतह के ऊपर आने कहा, और वो भी उस वक्त जब अमेरिकी जहाज उन्हें आसानी से देख लें। जैसे ही अमेरिकियों की नजर न्यूक्लियर पनडुब्बियों पर पड़ी, उन्हें अनुमान हो गया कि लड़ाई हुई तो उनका भी भारी नुकसान होगा। वो भारतीय नौसेना से तो निपट सकते थे लेकिन रुसी पनडुब्बियों से लड़ाई में उनके अपने लोग भी मारे जाएँ, इतनी हिम्मत उनमें नहीं थी। रूसियों का ये धोखा काम आ गया। अमेरिकी एडमिरल ने अपनी (निक्सन की) सरकार को बताया कि यहाँ केवल छोटी सी भारतीय नौसेना नहीं है बल्कि दर्जनों रुसी पनडुब्बियाँ मौजूद हैं! कुटनीतिक बयानों और थोड़ा शोर-शराबा करके अमेरिकी पीछे हट गए। इस तरह भारत ने बांग्लादेश को मुक्ति दिलाने में सफलता पायी।
इस 1971 के युद्ध में भारतीय सेनाओं ने जो जीत हासिल की थी, उसे कांग्रेसी सरकारों ने वार्ता की मेज पर खो दिया। सामरिक सफलता तो मिली लेकिन उससे भारत को जीत में कोई जमीन इत्यादि नहीं मिल पायी। उल्टा हिन्दुओं का जो भारी नरसंहार पाकिस्तानी इस्लामिस्टों ने किया था, उसका कोई मुआवजा नहीं मिला। न ही हिन्दुओं को बांग्लादेश में कोई विशेष दर्जा आदि मिला। अल्पसंख्यक हिन्दुओं के हित वहाँ सुरक्षित रहें, इसके लिए कुछ भी करने में इंदिरा गाँधी और कांग्रेसी बुरी तरह असफल सिद्ध हुए। पिछले पांच दशकों में बांग्लादेशी घुसपैठिये और इस्लामिस्ट आतंकवाद के लिए एक नया रास्ता बन गया है। मणिपुर-मिजोरम, उत्तर-पूर्वी भारत के हिस्सों और बांग्लादेश के कुछ हिस्सों को मिलाकर एक इसाई राष्ट्र बनाने की अवधारणा के तहत काम करने वाले आतंकी भी इस पूरे क्षेत्र में उग आये हैं। चिकेन नेक काटा जा सकता है, उत्तर-पूर्वी भारत को भारत से ही अलग करने की योजना है, ये शरजिल इमाम के भाषण में पूरा देश सुन चुका है।
ऐसे में हैप्पीनेस इंडेक्स में भारत से ऊपर स्थान पाने वाले श्रीलंका के बाद बांग्लादेश में हुए तख्तापलट के क्या मायने हैं? सबसे पहले तो हिन्दुओं को ये समझना होगा कि वो कोई सुरक्षित अपने घर में आराम से नहीं हैं। मोदी और भाजपा सरकार नाम की बाड़ उन्हें आस पास के खतरों से थोड़ा सुरक्षित करती है लेकिन वो भी केवल बाड़ है। जैसा कि बाड़ से खेतों में होता है, वैसे ही थोड़ी सी सुरक्षा होती है, लेकिन किसान डंडा लेकर दौड़े नहीं तो आस पास के जंगली जानवर बाड़ जहाँ कमजोर होगी, वहां से तोड़कर घुस ही आयेंगे ये याद रखना होगा। आँखें मूंदने का विकल्प हिन्दुओं के लिए नहीं है। बांग्लादेश में तख्तापलट होते ही कोई चर्च नहीं जलाए गए। सुन्नियों की मसीतें, या शिया की मसीतें, या अहमदिया-कादियानी की मसीतों पर हमले भी नहीं हुए हैं। हमले सिर्फ और सिर्फ हिन्दुओं के मंदिरों पर हुए। सिर्फ हिन्दुओं के घर जलाए गए। सिर्फ हिन्दू नेताओं को मारा गया। किसी ने हिन्दुओं से जाति भी नहीं पूछी, ओबीसी या दलितों को छोड़कर सिर्फ बामनों को भी नहीं काटा गया है।
उनकी लड़ाई स्पष्ट है, शत्रुबोध भी स्पष्ट है। हिन्दुओं को अपना शत्रुबोध स्पष्ट करना पड़ेगा। कहाँ युद्ध में जीवन-मरण, स्त्रियों के बलात्कार, बच्चों को उठा ले जाने का खतरा है, ये अगर समझ नहीं आ रहा, नजर नहीं आ रहा तो ऐसे मूर्ख “डोडो प्रजाति” को विलुप्त हो जाने से बचाया भी नहीं जा सकता। आप स्वयं को या अपने परिजनों-बच्चों को जिस तथाकथित “नफरत की आग” से बचाने की सोच रहे हैं, असल में वो नफरत की आग उनतक पहुंचेगी ही। उन्हें हमलावर कौमों के बारे में नहीं बताया इसलिए वो बच गए, ऐसा सोचना मूर्खता है। वो पहले से शत्रुओं के आक्रमण के लिए तैयार हो तो शायद बचाव कर पायेगा। आपने बताया भी नहीं था कि तख्तापलट या दंगे, गृह-युद्ध में हिन्दुओं के साथ क्या हुआ, तो जिस दिन उन्हें इसका सामना करना पड़ा, उस दिन वो आपको भी कुछ न बताने के लिए कोसेंगे। कुछ न बताकर बचा लिया, ये सोचने की जो गलती दादाजी वाली पीढ़ियों ने की थी, वही दोहराने की भूल करना चाहते हैं क्या?
सोचिये, घरों में समाचार चलने दीजिये, बांग्लादेश में हिन्दुओं का क्या हो रहा है, ये अगली पीढ़ियों को देखने दीजिये। क्योंकि घर के बाहर, कॉलेज में प्रोफेसर बनकर, समाज में एनजीओ एक्टिविस्ट बनकर, कई बार टीवी चैनल और यू-ट्यूब या सोशल मीडिया पर मीठी-मीठी बातों में उन्हें बरगलाने के लिए, हर ओर से पिंसर मूवमेंट में उन्हें घेरने के लिए, हमलावरों के कई मीर जाफर तो बैठे ही हैं न!