लेखक: अवधेश झा
भारतीय ज्ञान परंपरा का मूल आधार हमारा आध्यात्मिक ज्ञान से रहा है और आध्यात्मिक उन्नति के बिना भौतिक उन्नति का अस्तित्व आधार हीन प्रतीत होता है। इस दृश्य जगत में जो भी दिख रहा है वह इंद्रिय ज्ञान का विषय है। लेकिन, इंद्रिय ज्ञान से परे ज्ञान आत्मा का ज्ञान या ब्रह्म ज्ञान है। ब्रह्म ज्ञान, शास्त्र ज्ञान और शस्त्र ज्ञान ही हमारी ज्ञान परंपरा का मुख्य आधार रहा है। धर्म, कर्म, उपासना, न्याय और नैतिकता का पालन करते हुए लौकिक जगत को भी सबल, सक्षम और संपन्न रखना हमारी ज्ञान परंपरा का मुख्य उद्देश्य रहा है।
जस्टिस राजेंद्र प्रसाद (पूर्व न्यायाधीश, पटना उच्च न्यायालय, पटना) ने इस संबंध में कहा कि “सृष्टि की प्रथम पीढ़ी ईश्वर या देवता का ही रहा है। इसलिए, देवत्व की प्रधानता थी और शिक्षा में पूर्णतः ब्रह्म, आत्मा और पारलौकिक लक्ष्य की प्राप्ति ही प्रमुख लक्ष्य था तथा ज्ञान, कर्म और उपासना आदि भी उसी अनुकूल था। देव भाषा संस्कृत की प्रधानता थी और समस्त शास्त्र संस्कृत की श्लोक में अपने दिव्य आभा लिए उपस्थित था। जोकि, ब्रह्म का ही प्रतिनिधित्व करता था। इसलिए, संस्कृत और संस्कृति जागृत रही और हम पुरातन से सनातन तक “विश्व ज्ञान” गुरु रहें हैं। हमारी जितनी भी शिक्षाएं हैं वह आत्म केंद्रित, सुक्ष्म और शाश्वत रहा है। वह किसी भी तकनीकी या भौतिक अस्तित्व पर केंद्रित नहीं था, वह मंत्र ज्ञान और उसके समुचित प्रयोग से ही संचालित होता था। जैसे जैसे समय परिवर्तित होता गया, हमारी वह शिक्षा सुप्त अवस्था में लीन हो गई है तथा आधुनिक शिक्षा का प्रभाव बढ़ता चला गया है। लेकिन, आधुनिक ज्ञान और शिक्षा हमारी सनातन ज्ञान परंपरा का ही एक कृत्रिम अध्याय है। क्योंकि इसे ग्रहण करने के उपरांत भी पूर्णता का हमेशा आभार ही रहता है। आज हम विश्व में सर्वोच्च इसलिए है कि हमारी ज्ञान परंपरा का कोई विकल्प नहीं है। जबकि संसार प्रत्येक विषय और वस्तु का विकल्प खोज लिया है। विश्व ने विकसित राष्ट्र की मापदंड भी निर्धारित कर लिया है और महाविनाशकारी हथियार भी जो समस्त विश्व में क्षण भर में प्रलय ला सकती है। वह ज्ञान जो हमारी विकास और हमें प्रलय की नींद में सुला दे, उसकी गुणवत्ता पर हम कैसे निर्भर रह सकते हैं। हमारा ज्ञान विश्व कल्याणकारी है, लोक कल्याणकारी है। इसलिए, हम सम्पूर्ण विश्व मंडल को अपना परिवार ही समझते आएं हैं और ईश्वर तथा ग्रह मंडल हमारे पूर्वज ही हैं।”
हमारे, मौलिक ज्ञान परंपरा में शिक्षा, संस्कार और संस्कृति समाहित है। आज हम जिस ज्ञान परंपरा को वापस लाना चाहते हैं, वह ज्ञान परंपरा इतनी विकसित थी; कि हम आत्मिक, आध्यात्मिक रूप से सबल, सक्षम और पूर्ण थे। हमारी आध्यात्मिक चेतना ज्यादा महत्वपूर्ण थी, लेकिन हम भौतिक तत्व के मूल स्वरूप और संसाधन से भी परिपूर्ण थे। हमारी ज्ञान परंपरा और लोक व्यवहार शास्त्र अनुकूल थी।
यहां शास्त्र कहता है;
श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ संपरित्या विविनक्ति धीराः।
श्रेयो हि धीरोऽभिप्रेयसो वृणिते प्रीयो मन्दो योगक्षेमादविणिते।।
अच्छा और सुखद दोनों ही नश्वर के निकट आते हैं; बुद्धिमान व्यक्ति उनका परीक्षण करता है और उनमें अंतर करता है; क्योंकि बुद्धिमान व्यक्ति सुखद की अपेक्षा अच्छे को पसंद करता है; अज्ञानी व्यक्ति अपने शरीर के लिए सुखद को चुनता है। यहां बुद्धिमान से आशय है; जिस बुद्धि पर आत्मा का प्रकाश पड़ता है। वह बुद्धि सत्य स्वरूप आत्मोन्मुख हो जाता है। इसलिए, हम विश्व गुरु थे और हमारी ज्ञान परंपरा श्रेष्ठ थी। क्योंकि हमारी बुद्धि सत्योन्मुख, आत्मोन्मुख और सुखद की अपेक्षा सबके लिए जो अच्छा होता है, उसका चुनाव करता था। सुख क्षणिक है। अच्छा नश्वर है और अच्छाई ही सर्वव्याप्त है। शास्त्रों में,
वेद अपौरुषेय और सर्वोच्च ज्ञान है। वेद ब्रह्म सत्य है। यह ज्ञान व्यक्ति पर निर्भर न होने वाले ज्ञान से संबंधित अनुशासन है। जो भारतीय ज्ञान परंपरा का हिस्सा है तथा जिसका उद्देश्य व्यक्ति के आंतरिक और बाहरी दोनों पहलू पर ध्यान केंद्रित करना है। वेदों में उपनिषद सर्वोच्च विचार है। जिसका केंद्र ब्रह्म या आत्मा ही है। भारतीय ज्ञान परंपरा में वेद सभी प्राणियों की शाश्वत आंखे हैं और पुराण वेदों की प्रामाणिकता को स्वीकार करते है। क्योंकि, सभी धर्मशास्त्र भी वेदों में निहित हैं। धर्मशास्त्र में धार्मिक आचरण, आजीविका (धर्म), समारोह, न्यायशास्त्र (कानून का अध्ययन) और बहुत कुछ के बारे में निर्देश (शास्त्र) शामिल हैं। इसे स्मृति के रूप में वर्गीकृत किया गया है, जो हमारे जीवन शैली से संबंधित पुस्तकों का एक महत्वपूर्ण और आधिकारिक चयन है।
आज हम जिस ज्ञान से अविकसित, विकासशील और विकसित के श्रेणी में आते हैं, उसका आधार उसी ज्ञान परंपरा पर हो; जिसमें प्राचीन से प्राचीनतम और आधुनिक से आधुनिकतम ज्ञान का समावेश है। क्योंकि, वह ज्ञान जो हमें हमारी आत्मा और आत्मा की मूलभूत संरचना की ज्ञान से दूर कर दे। वह ज्ञान शाश्वत और सनातन कैसे हो सकता है? इसलिए, हमारी ज्ञान परंपरा सत्य और सनातन है। यह कोई राष्ट्र या व्यक्ति विशेष पर निर्भर नहीं है। यह आत्मा – अनात्मा, ज्ञान – विज्ञान, धर्म – अधर्म, कर्म – अकर्म, लौकिक – पारलौकिक, भाषा – संस्कृति – संस्कार, धर्म, न्याय आदि सम्पूर्ण विषयों की सूक्ष्मता तथा वृहतता से अवगत कराता है। आत्म – अनुसंधान का सर्वोच्च अवसर प्रदान करता है। अंदर और बाहर, व्यष्टि और समष्टि में जो कुछ व्याप्त है, उन सभी का ज्ञान और विज्ञान हमारी ज्ञान परंपरा में समाहित रही है। जीवन के पूर्व और जीवन के बाद की स्थिति का ज्ञान और उसका विज्ञान का रहस्योद्घाटन हमारे परंपरा में युगों से समाहित है। जबकि, संसार में जो परंपरा व्याप्त है, वह केवल सुख की सर्वोच्चता के लिए ही कार्यरत है तथा इस विकास में उसका विनाश भी जुड़ा हुआ है। उस सुख का आधार भौतिक उन्नति और सुख से है। इसलिए, जहां आत्मिक आनंद, अध्यात्म, योग और स्वरूप के दर्शन की बात आती है तो भारत का नाम ही जाता है। भारतीय ज्ञान परंपरा ही सभी ज्ञान परंपराओं का मूल और शाश्वत आधार है। यही जीवन दर्शन है।