जिस तरह से आत्मज्ञानी का आत्मा ही संसार है, उसी तरह से प्रत्येक व्यक्ति का अपना संसार है और कवि का कवित्व ही उसका संसार है। हमारे आदि ऋषि ही, हमारे आदि कवि हैं और वह अपनी काव्य रचना में केवल शब्द या भाव ही नहीं व्यक्त करते थे, अपितु वह तत्वज्ञानी भी थे और उनके शब्दों से तत्वों का बोध होता है। तत्वों के रहस्य को वे इस तरह से जानते थे, कि वह ‘तत्वदर्शी’ जिस तत्व या विषय का लेखन करेंगे, उसमें उस तत्व का दर्शन हो जाएगा तथा विषयों का ज्ञान और साहित्य के रस का अनुभूति होता है।
महाकवि विद्यापति ऐसे ही तत्वदर्शी थे, उनकी रचनाओं में शिव और शक्ति तत्व, तथा कृष्ण और राधा तत्व का समावेश है। शिव, हरि के उपासक हैं और हरि, शिव के उपासक हैं। इसलिए, महाकवि दोनों के तत्व को अभिव्यक्त कर पूर्णता को प्राप्त किए। पूर्ण तो वह पहले से ही थे, क्योंकि वह ऐसे तत्वज्ञानी थे, जो शिवत्व की उपासना कर शिव को प्रसन्न किए और शिव साक्षात उनके साथ रहने लगे; उनके सहायक बनकर और अपना सांसारिक नाम भी रख लिए “उगना”, जिसका शाब्दिक अर्थ है, प्रकट होना, उदय होना; जो हमेशा उदित रहता है, जिसका कभी अस्त नहीं होता है; से वह तो अविनाशी आत्मा ही है और परब्रह्म स्वरूप, परमात्मा शिव रूप में उपस्थित थे। यहां एक और बात ध्यान देने योग्य है कि वह “ब्रह्म स्वरूप” में “उगना” एक अबोध बालक की तरह था, जिसे दृष्टा भी कह सकते हैं। एक ऐसा दृष्टा जो महाकवि को दृश्य का निर्माण करा रहा हो और वह दृश्य क्या था “शिव और शक्ति” अर्थात स्वयं की अनुभूति की अभिव्यक्ति महाकवि से करा रहे थे। अर्थात उनके कवित्व का स्रोत शिव ही थे। जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण उनकी रचनाओं के माध्यम से जाना जा सकता है उनकी रचना कोई साधारण गीत – संगीत नहीं, शिव – शक्ति का आवाह्न ही है। महाकवि के महा ज्ञान का प्रमाण इसी ब्रह्म विषय से लगाया जा सकता है कि जिस “लोक गीत” का निर्माण पारंपरिक लोक गायन तथा अन्य विधाओं के लिए किए, वह प्रार्थना रूपी गीत या काव्य वास्तव में ब्रह्म उपासना ही है। और सामान्यजन इस लोग व्यवहार में गीत का नियमित गायन, श्रवण के माध्यम से अपने इष्टदेव का उपासना भी करते जायेंगे और इससे उन्हें भी वही लाभ मिलेगा जो ब्रह्म का ध्यान एकांत में तपस्वी करते हैं तथा मंत्रवित, मंत्र का उच्चारण कर प्राप्त करते हैं। इस तरह से शिव ने महाकवि से कितना बड़ा लोककल्याणार्थ कार्य रचनाओं में माध्यम से स्वयं बैठकर करवाएं। ऐसे महाकवि, जो उदित सूर्य के सम्मुख हो; उनकी यश और कीर्ति का कभी अस्त नहीं हो सकता है।
दर्शन शास्त्र के ज्ञाता जस्टिस राजेंद्र प्रसाद (पूर्व न्यायाधीश, पटना उच्च न्यायालय, पटना) का कहना है कि “जब तक इस प्रकृति में हैं इसका सम्मान कीजिए, प्रकृति भी आप ही हैं, इसके विरुद्ध जाकर आप कुछ नहीं कर सकते है। प्रकृति साधन है, साध्य नहीं; इसलिए, इस साधन का सदुपयोग कर अपने साध्य रूपी स्वरूप का दर्शन कीजिए।”
वास्तव में, शक्ति तो प्रकृति है; जहां पुरुष है, वहां प्रकृति भी है। इसलिए, जहां शिव होंगे, वहां शिव की प्रकृति अर्थात पार्वती होंगी ही। जहां कृष्ण होंगे वहां कृष्ण की प्रकृति राधा होंगे ही और जहां श्रीहरि होंगे वहां हरि की प्रकृति महालक्ष्मी होंगी ही, इसी तरह से जहां ब्रह्म होंगे वहां, ब्रह्मा की प्रकृति सरस्वती होंगी ही और यह प्रकृति भी चेतन स्वरूप, आत्म स्वरूप, ब्रह्मस्वरूप में पुरुष ही है। इसलिए, पुरुष प्रकृति के बिना अधूरा है; क्योंकि प्रकृति ही उसकी शक्ति है, प्रकृति ही उसका साधन है और प्रकृति ही उसका प्रेम है; यह प्रेम तात्विक बोध में आदि काल से ही चला आ रहा है। यही सात्विक प्रेम का उत्कृष्ट उदाहरण है राधा और कृष्ण।
महाकवि विद्यापति “राधा और कृष्ण” के प्रेम के जिस स्वरूप का अपने श्रृंगार रस के माध्यम से अभिव्यक्ति किए है, वह सात्विक और अतंत प्रेम है; ऐसा प्रेम जो आदिकाल से कालातीत तक व्याप्त है। जैसे ब्रह्म का प्रकृति में प्रवेश से जो अनंत क्रियाओं का समागम होता है और समस्त जड़ भाव अपने चेतन के प्रति उत्सुक, जिज्ञासु, और आनंद से पूर्ण हो जाता है, और धीरे- धीरे उसी ब्रह्म में लीन होकर, ब्रह्म हो जाता है। वही भाव, उसी तत्व का दर्शन की अनुभूति महाकवि की रचनाओं में है। प्रेम की समस्त उत्सुकता मिलन के भाव तक ही है, मिलन के उपरान्त तो दोनों एक ही तत्व हो जाता है जैसे आत्मा द्वैत भाव को नाश कर परमात्मा में लीन हो जाता है। यह एक संदेश भी है, उच्च स्तर का प्रेम; सात्विक प्रेम में सत्व तत्व की प्रधानता होती है, जिसमें सात्विक अभिव्यक्ति निहित है, राजसी प्रेम में, रजस तत्व की प्रधानता होती है इसलिए, इसमें वीरता, पुरूषार्थ आदि की अभिव्यक्ति निहित होती है और सत्व की रक्षा और तामसी वृति के निरोध के लिए; रजस गुण भी आवश्यक है; क्योंकि रजस गुण, सत्व गुण के साथ रहता है, तो यह वीरता और पराक्रम का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करता है। जैसे सत्य स्वरूप श्रीकृष्ण, धर्मराज युधिष्ठिर के साथ अर्जुन। तामसी प्रेम में, तमो गुण की प्रधानता होती है, इसलिए, इसकी अभिव्यक्ति भी तामसिक होती है। लेकिन, प्रेम में तामसिक गुण, अपने आपमें प्रेम के गुण के विरुद्ध और आसुरी ही है।
गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है कि “सत्व गुण सामंजस्य और संतुलन है। सत्व गुण को “पवित्र, प्रकाशमान, बिना किसी बुराई” के रूप में वर्णित करती है। इसलिए, सात्विक प्रेम में सत्व गुण का ही आचरण है। जहां, प्रेम का विशुद्ध रूप ही सात्विक हो, तो सत्य के साथ रहने से इसका मान, सम्मान और प्रतिष्ठा यथा रूप रहता है।
प्रकृति ही पुरुष को धारण करती है और प्रकृति ही पुरुष को मुक्त करती है। मुक्ति – दाता शिव हैं, तो मुक्ति दायनी माता गंगा है और महाकवि अपने इस प्रकृति अवस्था से मुक्ति के लिए उन्हीं का आवाह्न किए और माता आ गईं। माता कैसे नहीं आती! जो शिव के जटाओं में प्रतिष्ठित है! जो मोक्षदायनी हैं! वो शिव भक्त के बुलाने पर अवश्य आएंगी। और उनके साथ शिवलोक भी उपस्थित हो गया और वह शिवमय हो गए; शिवत्व में लीन हो गए।
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(यह लेखक – अवधेश झा का अपना विचार है)