लेखक : अवधेश झा
“राम से बड़ा, राम का नाम” यह शब्द हमलोग अपने बाल्य काल से सुनते आए हैं और राम का नाम अनादि काल से ब्रह्मांड में व्याप्त है। राम तत्व तो हमेशा से विद्यमान था और रहेगा क्योंकि यह तत्व तो काल से भी परे है, कालातीत है।
अयोध्या में श्रीराम जन्मस्थल पर श्रीराम लला विराजमान हुए हैं; इस समय उनके दर्शन हेतु, दर्शन शास्त्र के ज्ञाता जस्टिस राजेंद्र प्रसाद (पूर्व न्यायाधीश, पटना उच्च न्यायालय, पटना) वहां उपस्थित हैं। श्रीराम लला के दर्शन किए। श्रीराम तत्व की अनुभूति के संबंध में जब मैंने उनसे बात किया तो उन्होंने कहा “राम को राम ही जान सकता है! मैं तो उनका विग्रह रूप का दर्शन करने आया हूं, लेकिन राम तत्व तो सर्वत्र व्याप्त है, जिसे हम इन्द्रिय जनित दृष्टि से नहीं, अपितु आत्म दृष्टि से जान सकते हैं, अनुभूति कर सकते है और रामतत्व का बोध कर सकते है। राम को जानने के लिए, राम के शुद्ध स्वरूप आचरण को अपनाना होगा अपने जीवन में धारण करना होगा “सिय राम मय सब जग जानी, करहु प्रणाम जोरी जुग पानी” तब आप अपने भीतर स्थित राम का दर्शन करेंगे और श्रीराममय हो जायेंगे”
वास्तव में, श्रीराम भी वही परब्रह्म तत्व है, जो आदि नारायण हैं, और वही भिन्न भिन्न रूपों में ब्रह्म, परब्रह्म, आत्मा, परमात्मा सर्वत्र है। दृष्टि केवल भेद का है। परमात्मा का विभिन्न स्वरूप, विभिन्न अवतारों का एक निश्चित उद्देश्य था और वह उस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वह प्रकट हुए और अपने में लीन हो गए; लेकिन, चेतन स्वरूप में वह सर्वत्र व्याप्त हैं:
वही आदि राम, अनादि राम;
शिव के मुख से निकले राम।
प्रारब्ध वही से, अंत भी वही
राम से बड़ा, राम का नाम।।
जब तमोगुण (काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार) की मात्रा बढ़ जाती है, और यह बढ़कर सत्य आकाश तक पहुंच जाता है, तब सत्य स्वरूप सच्चिदानंद परब्रह्म अवतार लेते हैं और उस अधर्म रूपी तमोगुण का विनाश करके, पुनः “सत्य रूपी धर्म” की स्थापना करते हैं। आत्मा ही सत्य है, नित्य है और अविनाशी है। तथा जैसी आत्मा में स्मृति की स्थिति रहेगी, वैसी ही वृति का उदय हो जाता है। राम नाम का जाप यही है, कि अपने स्मृति में राम नाम अंकित कर लीजिए; राम की वृति आपकी प्रवृत्ति में व्याप्त हो जायेगा और आप राममय हो जायेंगे। जैसे हनुमान जी हो गए, तुलसीदास जी हो गए जैसे वाल्मीकि जी हो गए।
श्रीराम जब अवतार लिए तो जो शास्त्र ज्ञान और शस्त्र ज्ञान उन्होंने प्राप्त किया। वास्तव में उस ज्ञान का स्त्रोत भी वही थे। क्योंकि आत्मा का समष्टि ही परमात्मा है और परमात्मा ही समस्त स्रोतों का स्रोत है, उन्हीं; आत्मा से ही समस्त स्त्रोतों का उदय होता है और उसी में अस्त होता है। ज्ञातव्य है कि जो “ब्रह्मज्ञान” महर्षि वशिष्ठ ने श्रीराम को दिया, वही “ज्ञान” ब्रह्मा ने वशिष्ठ को दिया था और ब्रह्मा ने महर्षि वाल्मिकी को भी दिया था। क्योंकि जो ज्ञान महर्षि वशिष्ठ श्रीराम को दे रहे थे; वह ज्ञान महर्षि वाल्मिकी उस समय से बहुत पूर्व ही ग्रहण कर उसे वाल्मीकि रामायण के रूप में व्यक्त भी कर चुके थे। अर्थात, वह ज्ञान पहले से ही व्यक्त और अव्यक्त रूप में विद्यमान था। ऐसे भी ब्रह्मज्ञान, तत्वज्ञान काल परे ही होता है और इसको जानने वाले भी कालातीत हो जाता है अर्थात उसपर काल का प्रभाव नहीं होता है। जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण महर्षि वशिष्ठ, महर्षि वाल्मीकि, महर्षि विश्वामित्र आदि हैं। अब प्रश्न उठता है कि जो ज्ञान ब्रह्मा ने वशिष्ठ और वाल्मीकि को दिया, वह ज्ञान ब्रह्मा जी कहां से प्राप्त किए? उत्तर भी स्पष्ट है कि ब्रह्मा जी को वह ज्ञान “अपने ही मूल” स्रोत स्वरूप “आदि, अनंत नारायण” से प्राप्त हुई और आदि नारायण तो स्वयं परब्रह्म स्वरूप हैं और उन्हें अपने “स्वरूप का ज्ञान” स्वयं है तथा वे ही समस्त ज्ञान के स्त्रोत भी हैं। तो इस तरह से श्री नारायण, राम अवतार लेकर “अपने ही स्वरूप का ज्ञान” महर्षि वशिष्ठ से प्राप्त किए। इस तरह से समस्त जड़ रूपी शरीर में वही “नारायण” या “राम” रूपी “आत्मा” का निवास है, जो व्यक्त भाव में “राम – कृष्ण” है और अव्यक्त भाव में नाम और रूप से परे परमात्मा या परब्रह्म हैं।
श्रीराम का अवतार लेने का मुख्य उद्देश्य ही “धर्म की रक्षा” था। तो धर्म क्या है? “आत्मा का सत्य के साथ रहना ही धर्म है” और जब आत्मा को असत्य ग्रसित करने लगता है तो नियत कर्म में व्यवधान उत्पन्न होने लगता है, तब वही परमात्मा प्रकट होते है और असत्य का नाश करते है। जो श्रीराम ने किया।
श्री राम जानते थे कि “रामावतार” में ज्ञान – विज्ञान से आसुरी शक्तियों का नाश नहीं होगा। क्योंकि, ज्ञान उनके लिए है, जो ज्ञान के महत्व को जानते है, या जिनको ज्ञान की आवश्यकता है। इसलिए, इस अवतार में उन्होंने महर्षि विश्वामित्र से उच्च स्तर के शस्त्र शिक्षा लिया, परशुराम से विष्णु धनुष और महर्षि अगस्त से भी अमोध अस्त्र का शिक्षा लिए जोकि उन्हीं का विभिन्न कालों का निर्माण था। साथ ही साथ धर्मनीति, राजनीति, युद्धनीति तथा पिता और परिवार के प्रति धर्म, गुरु के प्रति सम्मान, भाई, माता, धर्मपत्नी के प्रति धर्म और कर्तव्यों का आदर्श रूप प्रस्तुत किए। उसके अलावा किस – किस परिस्थिति में, या किसी भी परिस्थिति में, अपना धर्म का त्याग नहीं करना चाहिए, इसका उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किए। वह धर्ममूर्ति थे। राजधर्म उनके लिए सर्वोपरि थे, क्योंकि उसमें सम्पूर्ण राष्ट्र के हित की बात थी। लेकिन, एक राजकुमार या धर्माध्यक्ष राजा का प्रभाव सम्पूर्ण पृथ्वी पर होता है, यह भी संभव कर श्रीराम दिखला दिए। सूक्ष्मता से देखेंगे तो; एक राष्ट्र आपका शरीर भी है, जिसका राजा “आत्मा” अर्थात आप हैं, जैसे इस शरीर की रक्षा करना राजा या आत्मा का धर्म है, वैसे ही दृश्य जगत में भी एक रक्षक का राष्ट्रधर्म का प्रभाव समस्त में व्याप्त होना चाहिए। उस “राजा” का चार सहायक है: मन, बुद्धि, चित और अंहकार तथा बीस तत्व उसके मंत्री है। इस तरह से आप राजा के दायित्वों को समझ सकते हैं। यहां “पुरुषों में जो पुरुषार्थ है वह अपने धर्म की रक्षा के लिए है”। तथा राष्ट्र ही धर्म है, अगर आप राजा है; अपने राजधर्म के पालन हेतु समस्त निजी स्वार्थ का त्याग करना ही राजा कर्तव्य है और अधिकार स्वरूप में आत्मा ही आपका अधिकारक्षेत्र है और “आत्मा का धर्म ही सत्य” है। इसलिए, सत्य स्वरूप “राम” सदा समस्त क्लेशों और शोक से मुक्त थे और अपने ही “स्वरूप में स्थित” थे। इसलिए, “राम” का नाम लेने वाले भी, अपने स्वरूप में “राम” का “स्वरूप” देखने लगता है और “राममय” हो जाता है। जैसे असुर कुल में जन्म लेकर भी विभीषण राममय हो गए। लेकिन, महा ज्ञानी रहते हुए भी रावण नहीं हो पाया; क्योंकि “आत्मस्थिति” से वह अपने “वृतियों” और आसुरी प्रवृतियों में इतना आगे निकल चुका था, कि उसका समस्त “वृत्तियां” अहंकार के चादर से ढक गया था और जब निम्न अहंकार में, राहु बुद्धि से आत्मा ग्रसित हो जाता है तो “रावण” वाला स्थिति होना स्वाभाविक है। अब भगवान को उसका अंहकार नष्ट कर उसको “आत्म स्थिति” में लाना था, तो पहले समस्त अहंकार को नष्ट किए। और उसका अहंकार था, उसका अस्त्र- शस्त्र, उसका आसुरी छल – बल तथा भाई, सखा और संतान आदि का विभिन्न प्रकार का बल। वह उसे एक – एक कर भेंट चढ़ाता चला गया और अंत में स्वयं भेंट चढ़ गया। वैसे समय में भी भगवान राम उसे कई अवसर दिए, कि तुम मिथ्या अहंकार को त्याग कर मेरे शरण में आ जाओ। लेकिन, अहंकार का स्वरूप ही ऐसा होता है कि बुद्धि के प्रकाश को निस्तेज कर देता है। और जब उस अहंकार का नाश हुआ, तब उसे अपने स्थिति का ज्ञान हुआ। जो “ज्ञान” उसके अहंकार की चादर से ढका था, उसका उदय हुआ। भगवान, उसी प्रतीक्षा में थे और अपने छोटे भाई लक्ष्मण को ज्ञान ग्रहण करने हेतु वहां भेज दिए। क्योंकि ज्ञान अपने में विशुद्ध स्वरूप है, वह मित्र या दुश्मन का नहीं होता है। ज्ञान का सदुपयोग और दुरुपयोग महत्वपूर्ण है। इस तरह से अहंकार रूपी रावण का अंत हुआ और समस्त सृष्टि में रामराज्य का उदय हुआ। राम केवल अयोध्या के नहीं है, सम्पूर्ण सृष्टि के हैं। समस्त चेतन में हैं “राम” जय श्रीराम।
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(यह लेखक अवधेश झा का अपना विचार है!)