लेखक: अवधेश झा

“शक्ति” परब्रह्म परमात्मा का ही अनंत स्त्रोत का क्रिया भाव है। इसलिए, शक्ति के माध्यम से ही विभिन्न भावों की प्राप्ति होती है और शक्ति से ही विभिन्न भावों का नाश होता है। शक्ति की अधिष्टिता “महामाया” देवी हैं, जो अपनी योगमाया से ब्रह्मांड को शक्तिशाली और क्रियाशील रखी हैं। आदि शक्ति प्रकृति की मूल दुर्गा हैं जो महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती के रूप में विद्यमान हैं। पुरुष आत्म तत्व है तथा प्रकृति ही उसकी शक्ति है। इसलिए, शक्ति कभी भी आत्मा के विपरीत नहीं जाता है। शक्ति से ही शक्ति (सत्य भाव से) पर विजय प्राप्त किया जा सकता है। शक्ति ब्रह्मनिष्ट, आत्मनिष्ट या सत्यनिष्ठ पुरुष को हानि नहीं पहुंचाती है। शक्ति सुरक्षा और कवच भी है। शक्ति संकल्प और साधना भी है। रावण अपने कुल देवी की साधना कर उनसे सुरक्षा प्राप्त तो कर लिया। वास्तव में, साधना चाहे शुभ संकल्प के लिए हो या अशुभ कृत के लिए; माता तो तत्क्षण उसके साधना का फल तो दे ही देतीं हैं, लेकिन वह फलित नहीं हो पाता है।

श्रीराम और रावण का जब युद्ध प्रारंभ हुआ तो रावण को कुलदेवी की विशेष सुरक्षा के कारण युद्ध में उसे क्षति नहीं पहुंच रही थी। जामवंत इस बात से अवगत थे और उन्होंने प्रभु श्रीराम को भी दुर्गा शक्ति को जागृत करने की परामर्श दिया। प्रभु, बड़ों की अनुभव पूर्ण बात कैसे टाल सकते थे। उन्होंने, उनकी परामर्श को सहज ही स्वीकार किया तथा माता की आराधना हेतु संकल्प लिए और शक्ति जागरण हेतु साधना प्रारंभ कर दिए। युद्ध की ऐसी विकराल स्थिति जिसका द्रष्टा तीनों लोक था। देवता परिणाम की प्रतीक्षा में थे। उस रणभूमि के मध्य में तपस्वी, मनीषी और योगेश्वर राम “शक्ति जागरण” की साधना में लीन हो गए। प्रथम दिवस यम और नियम का पालन किए, तत्पश्चात शक्ति के सातों (कुंडलिनी) द्वार को खोलते हुए, वहां पहुंच गए जहां, शक्ति की अधिष्टिता देवी सहस्त्रहार चक्र में अर्धनारीश्वर महादेव के साथ अवस्थित थीं। इस क्रम में, उन्होंने राम का परीक्षा लिया और अजेय राम सफल हुए तथा विजयश्री की प्राप्ति हुई। वास्तव में, माता आदि शक्ति भगवान की ही वहीरंगा शक्ति हैं और माता सीता प्रभु की अंतरंगा शक्ति हैं। प्रभु जिस आंतरिक शक्ति के लिए युद्ध आरंभ किए थे, स्वाभाविक है कि केवल बाहरी शक्ति को आज्ञा ही देना था और वो सक्रिय हो जाती। जब प्रभु श्रीराम आज्ञा चक्र तक की यात्रा किए तो शक्ति माता ने कहा, “आप केवल मुझे आज्ञा दीजिए मैं समस्त शक्ति के साथ आपके समक्ष उपस्थित हो जाऊंगी”। लेकिन, प्रभु मर्यादा पुरुषोत्तम हैं, नियमों की उपेक्षा कैसे कर सकते थे! इसलिए, सम्पूर्ण विधि विधान का पालन करते हुए, माता की आराधना किए तथा उन्हें जागृत किए और वरदान प्राप्त किया।
वास्तव में, यह विजय दशमी भगवान राम द्वारा प्रारंभ किया हुआ तथा परब्रह्म परमेश्वरी से प्रेरित शक्ति जागरण है। इस जगत में अगर आप बाहरी युद्ध में विजय प्राप्त करना चाहते हैं तो सर्वप्रथम आंतरिक विजय आवश्यक है। अपने काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि को माया के वशीभूत मत होने दीजिए। सत्य के लिए तथा सत्य में ही प्रतिष्ठित होकर युद्ध कीजिए। इस तरह से जीवन की प्रत्येक संग्राम में आपका विजय सुनिश्चित है। किसी भी भाव का अति रूप ही रावण है। इसलिए, वह अत्यधिक ज्ञानी और बुद्धिमान होते हुए भी, अत्यधिक अभिमानी, क्रोधी, अहंकारी, लोभी, कामना से ग्रसित तथा आसुरी प्रवृत्तियों में लिप्त होने से उसके समस्त शुभ गुण ऐसे ढका हुआ था, जैसे सूर्य बादल से ढक जाता है। भगवान अपने अमोघ शक्ति से उसके सारे अहंकार का नाश कर दिए और जैसे ही अहंकार का नाश हुआ, उसे अपने स्वरूप में प्रभु श्रीराम का दर्शन हो गया। इसलिए, अंहकार ही आत्मतत्व के दर्शन में सबसे बड़ा बाधक है।

शक्ति संकल्प से ही पूर्ण होता है। शक्ति का जागरण अगर शुभ संकल्प के लिए होता है तो उसका परिणाम चिरकाल तक व्याप्त रहता है। इसका उत्तम उदाहरण प्रभु श्रीराम हैं।अपने पंच भौतिक शरीर की जो शोधन क्रिया है उसमें भी शक्ति की ही आवश्यकता है। इसलिए, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश और आत्म तत्व आदि का शोधन किया जाता है। माता की सम्पूर्ण शक्ति आपमें सुप्त रूप से विद्यमान है। इसे जागृत करने की आवश्यकता है। यही शक्ति माता हैं, जो महालक्ष्मी रूप भरण पोषण तथा धन – ऐश्वर्य प्रदान करती हैं। यही शक्ति दुर्गा रूप में समस्त कामनाओं की पूर्ति करती हैं और मुक्ति प्रदान करती हैं। यही शक्ति महासरस्वती हैं जो बुद्धि और ज्ञान प्रदान करती हैं, जिससे कल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है। ॐ श्रीसीता – रामाय नम:! ॐ क्लीं कृष्णाय नमः! ॐ दुं दुर्गायै नमः ! ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुंडायै विच्चे!

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