श्री देवरस जी अस्पृश्यता प्रथा के घोर विरोधी थे

परम पूज्य श्री मधुकर दत्तात्रेय देवरस जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तृतीय सरसंघचालक थे। आपका जन्म 11 दिसम्बर 1915 को श्री दत्तात्रेय कृष्णराव देवरस जी और श्रीमती पार्वती बाई जी के परिवार में हुआ था। आपने वर्ष 1938 में नागपुर के मॉरिस कॉलेज से स्नातक की उपाधि प्राप्त करने के उपरांत कॉलेज आफ लॉ, नागपुर विश्व विद्यालय से एलएलबी की डिग्री प्राप्त की। वर्ष 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना डॉक्टर हेडगेवार जी द्वारा की गई थी एवं आप वर्ष 1927 में अपनी 12 वर्ष की अल्पायु में ही संघ के स्वयंसेवक बन गए थे एवं नागपुर में संघ की एक शाखा में नियमित रूप से जाने लगे तथा इस प्रकार अपना सम्पूर्ण जीवन ही मां भारती की सेवा हेतु संघ को समर्पित कर दिया था। आप अपने बाल्यकाल में कई बार दलित स्वयंसेवकों को अपने घर ले जाते थे और अपनी माता से उनका परिचय कराते हुए उन्हें अपने घर की रसोई में अपने साथ भोजन कराते थे। आपकी माता भी उनके इस कार्य में उनका उत्साह वर्धन करती थीं। कुशाग्र बुद्धि के कारण आपने शाखा की कार्य प्रणाली को बहुत शीघ्रता से आत्मसात कर लिया था। अल्पायु में ही आप क्रमशः गटनायक, गणशिक्षक, शाखा के मुख्य शिक्षक एवं कार्यवाह आदि के अनुभव प्राप्त करते गए। नागपुर की इतवारी शाखा उन दिनों सबसे कमजोर शाखा मानी जाती थी, किंतु जैसे ही आप उक्त शाखा के कार्यवाह बने, आपने एक वर्ष के अपने कार्यकाल में ही उक्त शाखा को नागपुर की सबसे अग्रणी शाखाओं में शामिल कर लिया था। शाखा में आप स्वयंसेवकों के बीच अनुशासन का पालन बहुत कड़ाई से करवाते थे। दण्ड योग अथवा संचलन में किसी स्वयंसेवक से थोड़ी सी भी गलती होने जाने पर उसे तुरंत पैरों में चपाटा लगता था। परंतु, साथ ही, आपका स्वभाव उतना ही स्नेहमयी भी था, जिसके कारण कोई भी स्वयंसेवक आपसे कभी भी रूष्ट नहीं होता था।

श्री देवरस जी द्वारा वसंत व्याख्यानमाला में दिए गए एक उद्भोधन को उनके सबसे प्रभावशाली उद्बोधनों में से एक माना जाता है, मई 1974 में पुणे में दिए गए इस उद्बोधन में आपने अस्पृश्यता प्रथा की घोर निंदा की थी और संघ के स्वयंसेवकों से इस प्रथा को समाप्त करने की अपील भी की थी। संघ ने हिंदू समाज के साथ मिलकर अनुसूचित जाति के सदस्यों के उत्थान के लिए समर्पित संगठन “सेवा भारती” के माध्यम से कई कार्य किए। इस सम्बंध में संघ के स्वयंसेवकों ने स्कूल भी प्रारम्भ किए जिनमें झुग्गीवासियों, दलितों, समाज के छोटे तबके के नागरिकों एवं गरीब वर्ग को हिंदू धर्म के गुण सिखाते हुए व्यावसायिक पाठ्यक्रम चलाए जाते रहे। आपने 9 नवम्बर 1985 को अपने एक उदबोधन में कहा था कि संघ का मुख्य उद्देश्य हिंदू एकता है और संगठन का मानना है कि भारत के सभी नागरिकों में हिंदू संस्कृति होनी चाहिए। श्री देवरस जी ने इस संदर्भ में श्री सावरकर जी की बात को दोहराते हुए कहा था कि हम एक संस्कृति और एक राष्ट्र (हिंदू राष्ट्र) में विश्वास करते हैं लेकिन हिंदू की हमारी परिभाषा किसी विशेष प्रकार के विश्वास तक सीमित नहीं है। हिंदू की हमारी परिभाषा में वे लोग शामिल हैं जो एक संस्कृति में विश्वास करते हैं और इस देश को एक राष्ट्र के रूप में देखते हैं। इस प्रकार, वे समस्त हिंदू इस महान राष्ट्र का हिस्सा माने जाने चाहिए। इसलिए, हिंदू से हमारा आशय किसी विशेष प्रकार की आस्था से नहीं है। हम हिंदू शब्द का उपयोग व्यापक अर्थ में करते हैं।

वर्ष 1973 में श्री देवरस जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक बने। आपने अपने कार्यकाल के दौरान संघ को समाज के साथ जोड़ने में विशेष रूचि दिखाई थी और इसमें सफलता भी प्राप्त की थी। आपने श्री जयप्रकाश नारायण जी के साथ मिलकर भारत में लगाए गए आपातकाल एवं देश से भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए चलाए गए आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। आपातकाल के दौरान देश के कई राजनैतिक नेताओं के साथ ही संघ के कई स्वयंसेवकों को भी तत्कालीन केंद्र सरकार ने जेल में डाल दिया था। श्री देवरस जी को भी पुणे की जेल में डाला गया था। लम्बे समय तक चले संघर्ष के बाद, जब श्री देवरस जी को जेल से छोड़ा गया तो आपका पूरे देश में अभूतपूर्व स्वागत हुआ था। आपातकाल के दौरान अपने ऊपर एवं अन्य विभिन्न नेताओं पर हुए अन्याय एवं अत्याचार को लेकर देश के नागरिकों एवं स्वयंसेवकों के बीच किसी भी प्रकार की कटुता नहीं फैले इस दृष्टि से आपने उस समय पर समस्त स्वयंसेवकों को आग्रह किया था कि हमें इस सम्बंध में सब कुछ भूल जाना चाहिए और भूल करने वालों को क्षमा कर देना चाहिए। आपातकाल के दौरान संघ कार्य के सम्बंध में लिखते हुए द इंडियन रिव्यू पत्रिका के सम्पादक श्री एम सी सुब्रमण्यम ने लिखा है कि “आपातकाल के विरोध में जिन्होंने संघर्ष किया, उनमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख है। इस बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि सत्याग्रह की योजना बनाना, सम्पूर्ण भारत में सम्पर्क बनाए रखना, चुपचाप आंदोलन के लिए धन एकत्रित करना, व्यवस्थित रीति से आदोलन के पत्रक सब दूर पहुंचाना, और बिना दलीय या धार्मिक भेदभाव के कारागृह में बंद लोगों के परिवारों की आर्थिक मदद करना, इस सम्बंध में संघ ने स्वामी विवेकानंद के उदगार सत्य कर दिखाए। स्वामी विवेकानंद जी ने कहा था कि देश में सामाजिक और राजनैतिक कार्य करने के लिए सर्वसंग परित्यागि सन्यासियों की आवश्यकता होती है।” आपातकाल के दौरान संघ के कार्यकर्ताओं के साथ कार्य करने वाले विभिन्न दलों के सहयोगियों ने ही नहीं बल्कि संघ से शत्रुता रखने वाले नेताओं ने भी संघ के स्वयंसेवकों के प्रति गौरव और आदर के उद्गार व्यक्त किए हैं।

भारत को राजनैतिक स्वतंत्रता वर्ष 1947 में प्राप्त हो गई थी, परंतु, दादरा नगर हवेली एवं गोवा आदि कुछ हिस्से अभी भी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे थे क्योंकि यहां पुर्तगालियों का शासन यथावत बना रहा। ऐसे समय में कुछ संगठनों ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दायित्ववान स्वयंसेवकों से मुलाकात की और भारत के उक्त क्षेत्रों को भी स्वतंत्र कराने की योजना बनाई गई। संघ के हजारों स्वयंसेवक सिलवासा पहुंच गए एवं दादरा नगर हवेली को आजाद करा लिया। संघ के स्वयंसेवकों ने 1955 से गोवा मुक्ति संग्राम में भाग लेना शुरू कर दिया था।इसके बाद गोवा को स्वतंत्र कराने के उद्देश्य से कर्नाटक से 3000 से अधिक संघ के स्वयंसेवक गोवा पहुंच गए, इनमें कई महिलाएं भी शामिल थीं। गोवा सरकार के खिलाफ आंदोलन प्रारम्भ हो गया। सरकार ने इन सत्याग्रहियों को गिरफ़्तार कर लिया गया एवं 10 साल की कठोर सजा सुनाई गई। इसके बाद तो इन स्वयंसेवकों की रिहाई कराने एवं गोवा को स्वतंत्र कराने की मांग पूरे देश में ही उठने लगी। देश की जनता के दबाव में भारत सरकार ने ऑपरेशन विजय चलाया। 18 दिसम्बर, 1961 को इस महत्वपूर्ण अभियान को प्रारम्भ किया गया, इस अभियान में भारतीय सेना के तीनों अंग शामिल हुए थे। यह अभियान 36 घंटे चला और इसके सफल होते ही गोवा को 450 वर्ष के पुर्तगाली शासन से आजादी प्राप्त हो गई। इस प्रकार संघ के स्वयंसेवकों के प्रारंभिक उद्घोष, सक्रियता, समर्पण, जज्बे और सेना के पराक्रम से अंतत: गोवा भारतीय गणराज्य का अंग बन गया। कुल मिलाकर गोवा को स्वतंत्र कराने में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इस पूरी प्रक्रिया में संघ की ओर से श्री देवरस जी की भी महती भूमिका रही है।

श्री देवरस जी ने कई पुस्तकें भी लिखी थीं, जिनमें कुछ पुस्तकें बहुत लोकप्रिय हुईं हैं, जैसे वर्ष 1974 में “सामाजिक समानता और हिंदू सुदृढ़ीकरण” विषय पर लिखी गई पुस्तक; वर्ष 1984 में लिखित पुस्तक “पंजाब समस्या और उसका समाधान”; वर्ष 1997 में लिखित पुस्तक “हिंदू संगठन और सत्तावादी राजनीति” एवं वर्ष 1975 में अंग्रेजी भाषा में लिखी गई पुस्तक “राउज़: द पॉवर आफ गुड” ने भी बहुत ख्याति अर्जित की है।

श्री देवरस जी 17 जून 1996 को इस स्थूल काया का परित्याग कर प्रभु परमात्मा में लीन हो गए थे। आपकी इच्छा अनुसार आपका अंतिम संस्कार रेशमबाग के बजाय नागपुर के सामान्य नागरिकों के श्मशान घाट में किया गया था।

By Prahlad Sabnani

लेखक परिचय :- श्री प्रह्लाद सबनानी, उप-महाप्रबंधक के पद पर रहते हुए भारतीय स्टेट बैंक, कारपोरेट केंद्र, मुम्बई से सेवा निवृत हुए है। आपने बैंक में उप-महाप्रबंधक (आस्ति देयता प्रबंधन), क्षेत्रीय प्रबंधक (दो विभिन्न स्थानों पर) पदों पर रहते हुए ग्रामीण, अर्ध-शहरी एवं शहरी शाखाओं का नियंत्रण किया। आपने शाखा प्रबंधक (सहायक महाप्रबंधक) के पद पर रहते हुए, नई दिल्ली स्थिति महानगरीय शाखा का सफलता पूर्वक संचालन किया। आप बैंक के आर्थिक अनुसंधान विभाग, कारपोरेट केंद्र, मुम्बई में मुख्य प्रबंधक के पद पर कार्यरत रहे। आपने बैंक में विभिन पदों पर रहते हुए 40 वर्षों का बैंकिंग अनुभव प्राप्त किया। आपने बैंकिंग एवं वित्तीय पत्रिकाओं के लिए विभिन्न विषयों पर लेख लिखे हैं एवं विभिन्न बैंकिंग सम्मेलनों (BANCON) में शोधपत्र भी प्रस्तुत किए हैं। श्री सबनानी ने व्यवसाय प्रशासन में स्नात्तकोतर (MBA) की डिग्री, बैंकिंग एवं वित्त में विशेषज्ञता के साथ, IGNOU, नई दिल्ली से एवं MA (अर्थशास्त्र) की डिग्री, जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर से प्राप्त की। आपने CAIIB, बैंक प्रबंधन में डिप्लोमा (DBM), मानव संसाधन प्रबंधन में डिप्लोमा (DHRM) एवं वित्तीय सेवाओं में डिप्लोमा (DFS) भारतीय बैंकिंग एवं वित्तीय संस्थान (IIBF), मुंबई से प्राप्त किया। आपको भारतीय बैंक संघ (IBA), मुंबई द्वारा प्रतिष्ठित “C.H.Bhabha Banking Research Scholarship” प्रदान की गई थी, जिसके अंतर्गत आपने “शाखा लाभप्रदता - इसके सही आँकलन की पद्धति” विषय पर शोध कार्य सफलता पूर्वक सम्पन्न किया। आप तीन पुस्तकों के लेखक भी रहे हैं - (i) विश्व व्यापार संगठन: भारतीय बैंकिंग एवं उद्योग पर प्रभाव (ii) बैंकिंग टुडे एवं (iii) बैंकिंग अप्डेट (iv) भारतीय आर्थिक दर्शन एवं पश्चिमी आर्थिक दर्शन में भिन्नता: वर्तमान परिपेक्ष्य में भारतीय आर्थिक दर्शन की बढ़ती महत्ता latest Book Link :- https://amzn.to/3O01JDn

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