बात निकलेगी तो कांग्रेस तलक जाएगी! अभी राहत-बचाव कार्यों पर बयान देकर चारा घोटाले के सजायाफ्ता मुजरिम लालू यादव ने कहा है कि इसमें प्रधानमंत्री को श्रेय देने की क्या बात है? जैसे ही ये बात होती है तो हमें ये भी देखना होगा कि जब इस प्रधानमंत्री का दौर नहीं था, तब राहत और बचाव कार्य अगर होते थे, तो कैसे होते थे? तुलना करनी है तो कोई पैमाना तो चाहिए ही। इसके लिए हमें देखना पड़ता है कि पहले भी ऐसी दुर्घटनाएँ होती थीं क्या? भारत की बड़ी खनन दुर्घटनाओं को ढूंढते ही आपको चास नाला खनन दुर्घटना का नाम सुनाई देगा। करीब पचास वर्ष पहले 27 दिसम्बर 1975 को हुई थी। तब चास नाला बिहार के धनबाद के पास पड़ता था, अब ये झारखण्ड राज्य में आता है। एक विस्फोट के बाद धनबाद के पास स्थित इस खदान में अचानक पानी भर गया और सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इसमें 372 मजदूर फंस गए। ये घटना कितनी बड़ी थी, इसका अनुमान आप इस बात से लगा लीजिये कि पचास साल पहले जब सोशल मीडिया और 24 घंटे ब्रेकिंग न्यूज़ का दौर नहीं था, उस दौर में भी इस घटना पर फिल्म बनी थी। यश चोपड़ा जैसे बड़े निर्माता ने अमिताभ बच्चन, शत्रुघ्न सिन्हा और शशि कपूर जैसे कलाकारों को लेकर इसी घटना पर आधारित “काला पत्थर” नाम की फिल्म बनाई थी। इस जगह पर घटना के 23 दिन बाद, जी हाँ पूरे 23 दिन बाद राहत और बचाव दल पहुंचा था।
इस दुर्घटना में हुआ क्या था? करीब डेढ़ बजे दोपहर को एक विस्फोट हुआ जिससे मूल खदान और उसके पास ही एक खाली हो चुके, छोड़ दिए गए खदान के बीच की दीवारें कमजोर हो गयीं। खाली पड़ी खदान को जलाशय बना दिया गया था और काफी पानी उसमें जमा था। उस समय के आंकड़ों के मुताबिक 11 करोड़ गैलन, लीटर नहीं गैलन, 11 करोड़ गैलन यानि पांच लाख मीटर क्यूब पानी खदान में प्रवेश कर गया। पानी आने की गति सत्तर लाख गैलन प्रति मिनट बताई जाती है, यानि एक मिनट में 32 हजार मीटर क्यूब पानी भरता जा रहा था। दूसरी कुछ रिपोर्ट बताती हैं कि खदान में ग्यारह करोड़ नहीं करीब तीन से पांच करोड़ गैलन पानी भरा था। पांच करोड़ गैलन भी बहुत कम नहीं होता। घटना के पूरे एक सप्ताह बाद तक खदान से एक करोड़ सत्तर लाख गैलन ही पानी बाहर निकाला जा सका था। एक सप्ताह में भी इतना ही पानी क्यों निकाला जा सका? क्योंकि खनन के लिए विख्यात झारखण्ड के उस इलाके में, जहाँ टाटा की स्टील फैक्ट्री से लेकर कोयले की कई खदानें ही नहीं अबरक जैसी चीजों की खदानें भी हैं, वहाँ कोई हाई प्रेशर पंप नहीं था। इस खदान से पानी निकालकर मजदूरों को बचाने की कोशिश की जा सके, इसके लिए पोलैंड और उस दौर के सोवियत संघ से बाद में पंप मंगवाए गए। रेस्क्यू टीम जो घटना के 23 दिन बाद पहुंची थी, उसने पहला शव घटना के 26 दिनों बाद बरामद किया। जाहिर है, 26 दिनों बाद शव तो पहचाने जाने लायक बचे नहीं थे इसलिए शवों की पहचान उनके लैंप हेलमेट पर लिखे नंबर से की गयी।
उस दौर के लिए भी 372 श्रमिकों की खदान में मृत्यु हो जाना एक बड़ी घटना तो थी ही। इसलिए इस घटना पर भी जांच कमीशन बैठी। पटना हाई कोर्ट के रिटायर्ड चीफ जस्टिस उज्जवल नारायण सिन्हा इस जांच कमीशन के प्रमुख थे और उन्होंने 24 मार्च 1977 को यानि घटना के करीब डेढ़-दो वर्ष बाद अपनी रिपोर्ट सौंपी। ये जो खदान थी, इसका मालिकाना हक़ तब इंडियन आयरन एंड स्टील कंपनी (IISCO इसको) के पास था। इंडियन आयरन एंड स्टील कंपनी के चार कर्मचारियों पर लापरवाही बरतने का मुकदमा चलाया गया। आप कहीं अगर ये सोच रहे हैं कि इतनी पुरानी घटना की बात अभी क्यों की जा रही है तो बता दें कि ये मुकदमा निचली अदालत में 37 वर्ष चला था। यानि इस मुक़दमे का फैसला आये अभी बहुत साल नहीं बीते हैं। लापरवाही क्या की गयी थी? धमाके को पहले खदान में जमा गैस के निकलने का नतीजा बताया गया था, लेकिन ये पता चला कि खान में हवा के आने-जाने की, वेंटिलेशन की इतनी व्यवस्था थी कि खदान से निकली गैस से विस्फोट संभव नहीं था। दूसरी चीज थी पानी भरे हुए जिस खदान को छोड़ दिया गया था, उसमें और जिसमें काम चल रहा था, उस खदान की दूरी। खदानों के बीच की दूरी कितनी होनी चाहिए, ये तय होता है।
इंडियन माइंस एक्ट के मुताबिक दो खदानों के बीच कम से कम 60 मीटर यानि लगभग 200 फीट की दूरी होनी चाहिए। कोयला खदानों के मालिक अक्सर ऐसे नियम भूल जाते हैं क्योंकि इसे मानने का मतलब होगा लाखों टन बहुमूल्य कोयले को छोड़ देना। चास नाले के मामले में माना जाता है कि ये दो खदानों की दूरी 60 मीटर से भी कम थी। सीआरएमएस ने चास नाला में ही जांच की थी और पाया कि इससे कम दूरी घातक हो सकती है। घटना के 37 वर्ष बाद जब फर्स्ट क्लास जुडिशल मजिस्ट्रेट योगश कुमार सिंह ने मामले का फैसला सुनाया तब तक अभियुक्तों में से दो की मृत्यु हो चुकी थी। जे एन ओहरी और एस के बनर्जी की मौत के बाद सजा पाने के लिए सिर्फ तब के मेनेजर रामानुज भट्टाचार्य और प्लानिंग एंड सिक्यूरिटी ऑफिसर दीपक सरकार बचे हुए थे। चास नाला के 375 श्रमिकों की मौत के मामले में इन दोनों को एक-एक वर्ष के सश्रम कारावास और पांच हजार के जुर्माने की सजा हुई और उन्हें बेल पर छोड़ दिया गया। ये फैसला 2012 में आया था, यानी 1975 की चास नाला दुर्घटना के 37 वर्ष बाद और उस समय भी अभियुक्तों के पास ऊपर की अदालतों में जाने का विकल्प था ही, वो जमानत पर बाहर आ गए थे।
इन श्रमिकों की याद में एक स्मारक खान के बाहर ही बनाया गया था जिसे 1997 में एक पार्क में शिफ्ट कर दिया गया। आप चाहें तो 23 दिन बाद रेस्क्यू टीम के पहुँचने से अभी के सिलक्यारा सुरंग दुर्घटना में राहत-बचाव कार्यों की तुलना कर सकते हैं, लेकिन चास नाला सिर्फ कानूनों के उल्लंघन का मामला नहीं था। कानूनों के उल्लंघन पर आपको कानून-अदालतें सजा देती हैं। इस मामले में आप पाएंगे कि ये नैतिकता का उल्लंघन था, जिसके लिए सजा दी जा सके, ऐसा जरूरी नहीं होता। उस समय एस एस प्रसाद डायरेक्टर जनरल ऑफ़ माइंस सेफ्टी थे और एच एस आहूजा इस विभाग के डिप्टी डायरेक्टर थे। इस पद के कारण माइंस एक्ट 1952 के तहत उनके पास चीफ इंस्पेक्टर और इंस्पेक्टर का ओहदा आ जाता था। माइंस एक्ट का केवल चीफ इंस्पेक्टर को ये अधिकार देता था कि वो किसी खनन करने वाले को माइंस एक्ट के कुछ नियमों-निर्देशों का पालन न करने की छूट दे दे। एच एस आहूजा इस हिसाब से चीफ इंस्पेक्टर नहीं होते थे। एच एस आहूजा को ये मामला अपने वरिष्ठ अधिकारी चीफ इंस्पेक्टर एस एस प्रसाद को ट्रान्सफर करना चाहिए था। खान के प्रबंधन को नियमों का पालन करते हुए चीफ इंस्पेक्टर के आदेश के बिना नियमों में छूट भी नहीं लेनी चाहिए थी। गवाही के दौरान माइनिंग सरदार का काम कर रहे जे खान ने शुरू में गवाही दी थी कि पानी रिसने लगा था। लोडर का काम करने वाले लखन मांझी ने, प्रेमजी मंडल नाम के श्रमिक ने भी ऐसी ही गवाहियाँ शुरू में दी थीं, लेकिन बाद में वो अपने बयानों से पलट गए थे।
अगर कोई मुकदमा 37 साल तक चलता रहे और उसमें किसी ऐसे श्रमिक को आकर गवाही देनी हो जो रोज की मजदूरी से अपना घर चलाता है, तो वो कितनी देर टिकेगा, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं। रोज की दहाड़ी छोड़कर वो कहाँ गवाही देने अदालतों के चक्कर लगाएगा? कुल मिलाकर आपदा ही नैतिकता को ताक पर रख देने की वजह से खड़ी हुई थी। जिन्हें सजा मिली, उनके अलावा भी और लोग लापरवाही कर रहे थे। जो राहत और बचाव कार्य शुरू हुआ, वही आपदा के 23 दिन बाद शुरू हुआ। और अंत में जो अपराध सिद्ध होने पर फैसला आया, वो एक वर्ष की सजा और पांच हजार के जुर्माने का था यानि 375 मौतों से इस दंड की तुलना कोई नैतिक व्यक्ति तो नहीं ही करेगा। बाकी तब के राहत-बचाव कार्यों में और अभी में कितना अंतर है, वो आप देख लीजिये। किसे श्रेय दिया जाए, वो भी तय कर लीजियेगा!