इस पुस्तक में एक विचित्र सा बहाव है, एक अल्हड़पन है। आयु के साथ एकाग्रता कम हो जाती है। पहले एक सीटिंग में पुस्तक समाप्त करना आम था, अब कठिन है। ऐसे में जो पुस्तक हाथ से ना उतरे, लेखक का सामर्थ्य बताती है। रूही एक ऐसी ही पुस्तक है। कथा कई वर्षों की है, नायक के यौवन से उम्र चढ़ने तक का है, परन्तु कथावस्तु और कहानी का ह्रदय अंत तक षोडश में ही रहता है। कथा बाँधे रखती है, एक निर्दोष जीवन्तता के साथ, मर्यादाओं के मानक स्थापित करने का प्रयास नहीं करती है, और कुछ ऐसी है कि पुस्तक बंद करने के बाद नीत्शे के लेख का शीर्षक याद आता है- ह्यूमन, ऑल टू ह्यूमन। कहानी एक जगह भटकती सी भी लगी है जब कुछ धर्मनिरपेक्षता के भाव देने का प्रयास करती है, नायक के बचपन के प्रसंग में। क्यों करती है, पता नहीं।
शायद यह उन तमाम लेखकों के साथ समस्या है, जो पूर्णकालिक नहीं होते, और मौका पाते ही मन के सब उद्गार एक कृति में बाँधने का प्रयास करते हैं। सर्वधर्मसमभाव प्रसंग का कहानी से जुड़ाव नहीं समझ आया , और अगर चेखव की बात माने कि एक सर्ग में यदि टेबल पर पानी का ग्लास रखा है, तो दूसरे सर्ग में किसी न किसी पात्र को प्यास लगनी चाहिए, तो यह एक भाग कहानी से अलग जाता है। बाकी पुस्तक प्रेम कथा है और हर प्रेम की भाँति मानवीय त्रुटियों के गिर्द गुंथी है। यही सत्य कहानी को सजीव और प्रिय बनाता है। लेखक मित्र हैं, सो डर के पुस्तक उठाई कि कहीं अच्छी न लगी तो। परन्तु भय निरर्थक था। यह उस सत्य की कहानी है जिसकी सम्भावना हर ह्रदय में नैतिकता के आवरण के नीचे श्वास लेती है।
पृष्ठ संख्या: 350
मूल्य: 150
समीक्षक – साकेत सूर्येश