ये कहानी जादू-टोने की है। बिलकुल वैसी ही जैसी हरी पुत्तर, मेरा मतलब हैरी पॉटर की होती है – जिसके बारे में कहते तो हैं कि ये बच्चों की कहानी है, लेकिन पढ़ी-देखी सभी ने है। मिथिलांचल की इस कहानी में चित्रसेन नाम के एक राजा होते हैं। राजा की कोई संतान नहीं थी इसलिए उन्होंने अपने भतीजे बलरूचि को राजा बनाने का विचार किया हुआ था। राजा की एक रानी, जो कि राजा से आयु में बहुत छोटी थी, जादू-टोने में माहिर थी। इस रानी को बलरूचि पसंद था, मगर बलरूचि रानी पर कैसे आसक्त होता? उसके मना करने से क्रुद्ध रानी ने जादू टोने से स्वयं को बीमार दर्शाया। वैद्य आये, तरह-तरह की दवाएं दी गईं, लेकिन कोई असर नहीं हुआ।
सब परेशान हो ही रहे थे कि रानी ने बताया कि अगर उसे बलरूचि के रक्त से स्नान करवाया जाये, तभी वो ठीक हो सकती है। राजा के लिए ये कठिन स्थिति थी लेकिन उसने अपने सैनिकों को बलरूचि को वन में ले जाकर मार डालने और उसका रक्त ले आने का आदेश दे दिया। सैनिक बलरूचि को ले तो गए, लेकिन अबतक अगले राजा के रूप में काम करते, बलरूचि की जो छवि राज्य में थी, वो बड़े भले शासक की थी। सैनिकों ने उसे मारा नहीं, बल्कि राजा का आदेश बताकर, जंगल में भाग जाने कहा। वो लोग किसी हिरण (या भेड़िये) को मारकर उसका रक्त ले आये। उससे स्नान करके रानी स्वस्थ हो गयी।
दूसरी ओर जंगल में भागा बलरूचि इधर उधर आश्रय ढूंढता वन में एक कुटिया के पास पहुंचा। भूखे-प्यासे बलरूचि पर झोंपड़ी में रहने वाली बुढ़िया को दया आई और उसने बलरूचि को अपने पास रख लिया। ये बुढ़िया स्वयं भी जादू-टोने में माहिर थी। उसने बलरूचि को भी सिखाना शुरू कर दिया। कुछ समय बाद राजा चित्रसेन अपने ससुराल जाते हुए उसी वन से गुजर रहे थे कि रास्ते में उनकी पालकी के कहारों में से एक की मृत्यु हो गई। सिपाही आस पास से किसी को पकड़ कर कहार बनाने दौड़े। उन्हें बलरूचि मिला और वो उसी को ले आये। न राजा ने इतने दिन बाद बलरूचि को पहचाना, न बलरूचि को पता चला कि पालकी में राजा चित्रसेन हैं।
आदत के मुताबिक राजा चित्रसेन रास्ते में पालकी में बैठे एक गाना गाने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन एक वाक्य वो भूल रहे थे। जब कई प्रयासों में उन्हें गीत याद नहीं आया तो अचानक बलरूचि ने गीत पूरा कर दिया। अब राजा ने पालकी रुकवाई और देखा तो पाया कि बलरूचि तो जीवित है! वो क्षमा मांगते उसे अपने साथ राज्य में वापस ले चले। इतने दिनों में रानी को भी आपनी गलती महसूस हो गयी थी। उसने भी क्षमा मांगकर बलरूचि का स्वागत किया। तबतक जंगल की बूढ़ी डायन का ध्यान गया कि बलरूचि उसके पास से चला गया है तो वो क्रुद्ध हो गयी। उसने गुस्से में बलरूचि पर तरह-तरह के टोने करने शुरू किये।
इस बार मुकाबला करने के लिए बलरूचि तैयार था, क्योंकि वो उसी बुढ़िया से इतने दिनों में जादू-टोना सीख आया था। ऊपर से उसके पास रानी की सहायता भी थी। जंगल की डायन हार गई। बलरूचि का राज्य निष्कंटक रहे, इसके लिए रानी ने हर वर्ष झिझिया खेलना शुरू किया। धीरे-धीरे यही परंपरा लोक में भी फैली और आज मिथिला के कई गावों में लड़कियां-युवतियां झिझिया खेलती हैं। मिथिलांचल में परंपरागत रूप से शारदीय नवरात्र को तांत्रिक साधनाओं का काल भी माना जाता है। दादी-नानी इस समय घर के छोटे बच्चों की नाभि में तेल लगाती भी दिख जाती हैं। झिझिया एक नृत्य है, इसके साथ थोड़ा तेज, नृत्य के योग्य संगीत बजता है।
बिहार से करीब 2000 किलोमीटर दूर गुजरात से आज डंडिया चलकर बिहार पहुँच चुका है। अफसोस की मगध नरेश जरासंध जो करीब दो दशक से बिहार के राजसिंहासन पर बैठे मिथिलांचल की छाती पर मूंग दल रहे हैं, वो झिझिया को 200 किलोमीटर दूर से पटना तक भी नहीं ला पाए। उनके शिशुपाल-वक्रदंत जैसे दूसरे साथी भी मिथिलांचल से उनके जैसा ही द्वेष रखते हैं। इसलिए लिट्टी-चोखा का नाम बिहार के व्यंजन के नाम पर सुनाई देगा, लेकिन बगिया के बारे में कोई बात नहीं होती। ऐसा तब है जब स्वयं मगध नरेश जरासंध “हर थाली में बिहारी व्यंजन” की बात करते दिख जाते हैं।
झिझिया नृत्य में सर पर एक घड़ा रखकर लड़कियां नृत्य करती हैं। इस घड़े में कई छेद होते हैं और घड़े के अन्दर एक जलता हुआ दिया रखा जाता है। सर से घड़ा तेज घूमने, उठने-बैठने पर भी गिरता नहीं। कई छिद्रों में आती रौशनी वैसी ही दिखती है जैसा कुछ डीजे बजते समय एक इलेक्ट्रानिक गोले से किया जाता है। कुल मिलाकर डंडिया से ज्यादा नहीं तो उससे कम रोचक नृत्य तो बिलकुल नहीं है। इसके साथ गाये जाने वाले गीत के दो स्वरुप आसानी से सुनाई दे जाते हैं। एक में –
“तोहरे भरोसे माई रे, झिझिया बनैलिये,
माई हे, झिझिया पर होईय सहाय”
जैसा कुछ गाया जाता है और दूसरे में –
“तोहरे भरोसे ब्रह्मबाबा, झिझिया बनैलिये,
झिझिया पर होईय सवार” जैसा कुछ गाया जाता है।
यहाँ माई जहाँ देवी दुर्गा के रूपों के लिए है, और ब्रह्म बाबा ग्राम देवता होते हैं जिनके नाम पर अधिकांश किसी वृक्ष के नीचे लगा पत्थर गावों में पूजित होता है।
बाकी झिझिया दुर्गा पूजा के नौ दिन चलता है। उम्मीद है मिथिलांचल की कुछ लड़कियां पढ़ ही लेंगी। इस वर्ष न सही, अगले वर्ष सही! कहीं और से डांडिया लाकर सीखने के बदले अपने झिझिया को पुनःजीवित करके स्वयं मिथिलांचल से शहरों तक लाया ही जा सकता है। मगध के जरासंध से दो दशकों में नहीं हुआ, तो आगे भी उम्मीद न ही रखी जाये!
(नुसरत जहाँ की देवी का रूप धारण की हुई तस्वीर इन्टरनेट से साभार ली गई है)