बचपन में कभी जब टीवी पर शिक्षा के लिए, स्कूल जाने के फायदे समझाने के लिए प्रचार आते थे, उस दौर में किसी प्रचार में कहते थे कि लड़के को पढ़ाना मतलब एक लड़के को पढ़ना होता है, जबकि किसी लड़की को पढ़ा दो तो दो परिवारों की अगली पीढ़ियों का प्रबंध हो जाता है। तब उम्र भी कुछ कम थी और ऐसा कोई अनुभव भी नहीं था, इसलिए लड़कियों की अधिक और लड़कों की कम तारीफ वाला ये प्रचार (स्वयं पुरुष होने के कारण) बिलकुल सही नहीं लगता था। ऐसी ही दूसरी कहावतें भी थी – बूढ़ा तोता राम-राम नहीं रटता, जिसका अंग्रेजी अनुवाद “यू कांट टीच एन ओल्ड डॉग न्यू ट्रिक्स” जैसी होती थीं। इनमें भी लगता था कि आखिर बूढ़ा तोता, या बड़ा हो चुका कुत्ता नयी चीजें क्यों नहीं सीखता होगा?
थोड़े ही वर्षों में दोनों बातें समझ में आ गयीं। जब हिन्दुओं के लिए चार पुरुषार्थ बताये जाते हैं, तो धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष का क्रम होता है। पहले अर्थ फिर काम और बुढ़ापे में धर्म फिर मोक्ष का क्रम नहीं होता। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि एक बार जब बचपन-यौवन बीत गया तो नयी चीजें सीखना मुश्किल होगा। शारीरिक सामर्थ्य बचेगा नहीं तो कई तीर्थस्थलों पर जाना भी संभव नहीं होगा। इसलिए पहले धर्म। उपर से अर्थोपार्जन में, धन-संपत्ति जुटाने में अगर उचित उपायों के बदले अधार्मिक तरीके प्रयुक्त हुए हैं, तो बुढ़ापे में उस धन-संपत्ति का जो भोग देखना पड़ेगा, वो धरती पर ही नरक भोगने जैसा है। इसलिए भी धर्म से ही शुरू किया जाना चाहिए। थोड़े से अनुभव में अधिकांश लोग ऐसा होते देख चुके होते हैं।
अब सवाल ये है कि धर्म की बारी अगर सबसे पहले आती भी है तो हमारे स्कूल-विद्यालय तो सेक्युलर हैं। इनमें क्रिसमस मनाया जाना तो आम है, लेकिन हिन्दुओं के त्योहारों में तो कुछ सिखाते भी हैं तो वो उल्टा ही होता है। होली पर पानी बचाना और दीपावली पर प्रदूषण के बारे में ही बताते हैं न? यानी घूम-फिरकर जिम्मेदारी आखिर आपके ही सर आती है। नहीं करने का जो नतीजा होता है वो आसानी से आपको केबीसी (कौन बनेगा करोड़पति) में नजर आ जायेगा। जिन लोगों को दुनिया भर की बातें पता होती हैं, उन्हें हिन्दुओं के रामायण-महाभारत से जुड़ी साधारण बातें भी पता नहीं होतीं। अभी जिसपर ध्यान गया था, उन्हें ये नहीं पता था कि रामायण में पुत्रेष्ठी यज्ञ के बाद खीर के दो हिस्से किस रानी को मिले थे? कौशल्या को, कैकेयी को या सुमित्रा को?
जब कूल डूड के अब्बू अपने बच्चों को इतनी कम जानकारी देते हैं, या फिर ये सोचते हैं कि उनका काम अधिक से अधिक पैसे कमाना भर है, पढ़ाई इत्यादि के लिए ट्यूशन तो लगवा ही दिया है, तो नतीजा तो ऐसा होगा ही। धर्म के बारे में जानकारी न होने में गलती कूल डूड अथवा कूल डूडनी की बिलकुल भी नहीं है। असली कमी तो उसके अम्मी-अब्बू में थी। न आप कोई धर्म ग्रन्थ खरीदकर घर में रखते हैं, न धर्म से जुड़ी शिक्षा मिल सके इसका प्रबंध करते हैं, और अचानक 18 वर्ष का होते ही कोई नवयुवक, कोई नवयुवती, धार्मिक प्रवृत्ति वाले हों, ऐसी अपेक्षा भी रखते हैं? समाज के और लोगों से मिलना-जुलना होता है, धर्म में कई विभिन्नताओं का, अलग-अलग पद्दतियों का स्वागत होता है, ये सब आपको दिखाकर सिखाना होगा।
पिछले कुछ वर्षों से कल्याणी मंगला गौरी ऐसे ही प्रयास करती दिखती हैं। अपनी सोसाइटी में होने वाली दुर्गा पूजा में वो बच्चों के लिए पेंटिंग इत्यादि की प्रतियोगिता आयोजित कर देती हैं। इससे ये सुनिश्चित हो जाता है कि बच्चे कुछ देर आकर पंडाल में बैठें और पूजा इत्यादि की प्रक्रिया देखें। उनके माता-पिता अक्सर साथ आते हैं तो सामाजिक परिचय भी बढ़ता है। शहर में आकर बसे लोगों के लिए कन्या पूजन हेतु नौ कन्याओं को जुटाना मुश्किल होता है, उस समस्या का भी निदान हो जाता है। ऐसे आयोजनों में बच्चों को जो ज्योमेट्री बॉक्स, टिफिन बॉक्स जैसे पारितोषिक मिलते हैं वो बहुत महंगे भी नहीं होते। सबसे जरूरी कि संध्या-आरती के समय इकठ्ठा बच्चे एक-आध स्तोत्र भी दस दिन के अभ्यास में अपने आप सीख जाते हैं!
दो पन्ने का प्रिंट आउट लेकर उन्होंने देवी अपराध क्षमा स्तोत्र की एक एक कॉपी बच्चों और दूसरे इच्छुक लोगों में बाँट दी। पूजा स्थल पर रख भर देना होता है, जिन्हें याद नहीं वो अपनेआप उठा लेते हैं। इसी तरीके से महिषासुरमर्दिनिस्तोत्रम् भी याद करवाया जा सकता है। ये ऐसे स्तोत्र हैं जिनका गायन सुनने में अच्छा लगता है, इसलिए बच्चे अपनेआप इन्हें याद कर लेते हैं। फिर कभी बाद में समझ में आना शुरू होता है कि इनका अर्थ कितना विस्तृत है। कोई असंभव या बहुत कठिन कार्य नहीं होता। हाँ थोड़ा समय, थोड़ा श्रम तो लगता है, लेकिन अगली पीढ़ियों के लिए इतना थोड़ा सा प्रयास तो किया ही जाना चाहिए न?